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________________ २३८ श्रीमद् राजचन्द्र ४ धर्मानुष्ठान ।' ५ वैराग्यकी तीव्रता। (१०) . बंबई, जेठ वदी ११, शुक्र, १९४६ तुझे अपना अस्तित्व माननेमे कहाँ शका है ? शंका हो तो वह ठीक भी नही है । . (११) ... बबई, जेठ वदी १२, शनि, १९४६ कल रात एक अद्भुत स्वप्न आया था। जिसमे दो एक पुरुषोके सामने इस जगतकी रचनाके स्वरूपका वर्णन किया था, पहले सब कुछ भुलाकर पीछे जगतका दर्शन कराया था। स्वप्नमे महावीरदेवकी शिक्षा सप्रमाण हुई थी। इस स्वप्नका वर्णन बहुत सुन्दर और चमत्कारिक होनेसे परमानन्द हुआ था । अब फिर तत्सम्बन्धी अधिक । (१२) । बबई आषाढ सुदी ४, शनि, १९४६ कलिकालने मनुष्यको स्वार्थपरायण और मोहवश किया। . । जिसका हृदय शुद्ध है और जो सतकी बतायी हुई राहसे चलता है, उसे धन्य है। सत्सगके अभावसे चढी हुई आत्मश्रेणी प्राय पतित होती है। (१३) - बबई, आषाढ सुदी ५, रवि, १९४६ - जब यह व्यवहारोपाधि ग्रहण की तब उसे ग्रहण करनेका हेतु यह था - भविष्यकालमे जो उपाधि बहत समय लेगी, वह उपाधि अधिक दू खदायक हो तो भी थोडे समयमै भोग लेनी यह अधिक श्रेयस्कर है। । यह उपाधि निम्नलिखित हेतुओसे समाधिरूप होगी ऐसा माना था - .." धर्मसम्बन्धी अधिक बातचीत इस कालमे गृहस्थावस्थामे न हो तो अच्छा । । भले तुझे विषम लगे, परन्तु इसी क्रममे प्रवृत्ति कर । अवश्य ही इसी क्रममे प्रवृत्ति कर । दुखको सहन करके, क्रमकी रक्षाके परिषहको सहन करके, अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गको सहन करके तू अचल रह । अभी कदाचित् अधिकतर विषम लगेगा, परन्तु परिणाममे वह विषम सम हो जायेगा। घेरेमे तू मत फँसना । बार-बार कहता हूँ मत फँसना, दुखी होगा, पश्चात्ताप करेगा, इसकी अपेक्षा अभीसे इन वचनोको हृदयमे उतार-प्रीतिपूर्वक उतार। १ किसीके भी दोष मत देख । जो कुछ होता है, वह तेरे अपने दोषसे होता है, ऐसा मान । २ तू अपनी (आत्म) प्रशसा मत करना, और करेगा तो तू ही हलका है ऐसा मैं मानता हूँ। ३ जैसा दूसरोको प्रिय लगे वैसा अपना बर्ताव रखनेका प्रयत्न करना । उसमे तुझे एकदम सिद्धि नही मिलेगी, अथवा विघ्न आयेंगे, तथापि दृढ आग्रहसे धीरे-धीरे उस क्रमपरं अपनी निष्ठा जमाये रखना। ४ तू व्यवहारमे जिसके साथ सम्बद्ध हुआ हो उसके साथ अमुक प्रकारसे बरताव करनेका निर्णय करके उसे बता दे। उसे अनुकूल आ जाये तो वैसे, नही तो जैसे वह कहे वैसे बरताव करना ।. साथ ही बता देना कि आपके कार्यमे (जो मुझे सौंपेगे उसमे) किसी प्रकारसे मैं अपनी निष्ठाके -कारण हानि नही पहुँचाऊँगा । आप मेरे सम्बन्धमे दूसरी कोई कल्पना न करें, मुझे व्यवहार सम्बन्धी अन्यथा भाव नही है, ओर में आपसे वैसा बरताव करना भी नहीं चाहता। इतना ही नहीं, परन्तु मनवचनकायासे मेरा कुछ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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