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________________ २३ वॉ वर्ष २३५ 'पूर्व पुण्यना उदयथी, मळयो सद्गुरु योग । वचन सुधा श्रवणे जतां, थयु हृदय गतशोग ॥ २निश्चय एथी आवियो, टळशे अहीं उताप। नित्य कर्यो सत्संग मे, एक लक्षथी आप ॥ १५५ । बबई, १९४६ । “कितनी ही बातें ऐसी है कि जो मात्र आत्मग्ग्राह्य हैं, और मन, वचन एव कायासे पर है । कितनी ही वातें ऐसी हैं कि जो वचन और कायासे पर हैं, परन्तु है । श्री भगवान। श्री मघशाप। श्री वखला। १५६ बबई, १९४६ पहले तीन कालको मुट्ठीमे लिया, इसलिये महावीरदेवने जगतको इस प्रकार देखाउसमे अनन्त चैतन्यात्मा मुक्त देखे। अनन्त चैतन्यात्मा बद्ध देखे । अनन्त मोक्षपात्र देखे। अनन्त मोक्ष-अपात्र देखे। अनन्त अधोगतिमे देखे। ऊध्वंगतिमे देखे। उसे पुरुषाकारमे देखा। जड चैतन्यात्मक देखा। १५७ - - - स० १९४६ दैनंदिनी बबई, कार्तिक वदी १, शुक्र, १९४६ नाना-प्रकारका मोह क्षीण हो जानेसे आत्माको दृष्टि अपने गुणसे उत्पन्न होनेवाले सुखको ओर जाती है, और फिर उसे प्राप्त करनेका वह प्रयत्न करती है । यही दृष्टि उसे उसको सिद्धि देती है। (२) , बबई, कार्तिक वदी ३, रवि. १९४६ हमने आयुका प्रमाण नही जाना है। बालावस्था नासमझोमे व्यतीत हुई। माने कि ४६ वर्षको आयु होगी, अथवा वृद्धता देख सकेंगे इतनी आयु होगी। परन्तु उसमे शिथिल दशाके सिवाय और कुछ नही देख सकेंगे । अब मात्र एक युवावस्था रही। उसमें यदि मोहनीयवलवत्तरता न घटी तो सुखसे निद्रा १ भावार्थ पर्वपण्यके उदयसे सद्गुरुका योग मिला, उनके वचनामृत कर्णगोचर होनेसे हृदय शोकरहित हो गया। २ भावार्थ-इससे मझे निश्चय हुआ कि अव यही दुःख दूर हो जायेगा । फिर मैने एकनिष्ठासे निरन्तर सत्सग किया। ३ वर्णमालाका पहला एक एक अक्षर पढनेसे 'भगवान' शब्द बनता है। ४ वर्णमालाका दूसरा एक एक अक्षर पढ़नेसे 'भगवान' शब्द बनता है। ५ सवत १९४६ की दैनदिनीमें श्रीमद्ने अमुक तिथियोमें अपनी विचारचर्या लिखो है। किसोने इस दैनदिनीमैसे कुछ पन्ने फाड लिये मालूम होते हैं। उसमें जितने पन्ने विद्यमान है वे यहां दिये है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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