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________________ २५२ श्रीमद राजचन्द्र जो सुलभ है । और उसे प्राप्त करनेक़ा हेतु भो यही है कि किसी भी प्रकार से अमृतसागरका अवलोकन करते हुए अल्प भी मायाका आवरण बाध न करे, अवलोकन सुखका अल्प भी विस्मरण न हो, 'तू ही, तू हो' के सिवाय दूसरी रटन न रहे, मायिक भयका, मोहका सकल्पका या विकल्पका एक भी अश न रहे । यदि यह एक बार यथायोग्य प्राप्त हो जाये, तो फिर चाहे जैसा प्रवर्तन किया जाये, चाहे जैसा बोला जाये, चाहे जैसा आहार-विहार किया जाये, तथापि उसे किसी भी प्रकारकी बाधा नहीं है । परमात्मा भी उसे पूछ नही सकता । उसका किया हुआ सब कुछ सुलटा है । ऐसी दशा प्राप्त करनेसे परमार्थके लिये किया हुआ प्रयत्न सफल होता है । और ऐसी दशा हुए बिना प्रगट मार्ग प्रकाशित करनेकी परमात्माको आज्ञा नही है ऐसा मुझे लगता है । इसलिये दृढ़ निश्चय किया है कि इस दशा को प्राप्त करके फिर प्रगट मार्ग कहना -- परमार्थ कहना - तब तक नही, ओर इस दशाको पानेमे अब कुछ ज्यादा वक्त | भी नही है । पन्द्रह अशो तक तो पहुँचा जा चुका है। निर्विकल्पता तो है ही, परन्तु निवृत्ति नही है, निवृत्ति हो तो दूसरोके परमार्थके लिये क्या करना इसका विचार किया जा सकता है। उसके बाद त्याग चाहिये, और उसके बाद त्याग कराना चाहिये । महापुरुषाने कैसी दशा प्राप्त करके मार्ग प्रगट किया है, क्या क्या करके मार्ग प्रगट किया है, इस बातका आत्माको भलीभांति स्मरण रहता है, और यही प्रगट मार्ग कहने देनेकी ईश्वरी इच्छाका लक्षण मालूम होता है । इसलिये अभी तो केवल गुप्त हो जाना ही योग्य है । एक अक्षर भी इस विषय मे कहनेकी इच्छा नही होती। आपकी इच्छाकी रक्षाके लिये कभी कभी प्रवर्तन होता है, अथवा बहुत परिचयमे आये हुए योगपुरुषकी इच्छा के लिये कुछ अक्षरोका उच्चारण या लेखन किया जाता है। बाकी सर्व प्रकारसे गुप्तता रखी है। अज्ञानी होकर वास करनेकी इच्छा बना रखी है। वह ऐसी कि अपूर्व कालमे ज्ञान प्रगट करते हुए बाध न आये । इतने कारणोसे दीपचन्दजी महाराज या दूसरेके लिये कुछ नही लिखता । गुणस्थान इत्यादि का उत्तर नही लिखता । सूत्रका स्पर्श भी नही करता । व्यवहारकी रक्षा करनेके लिये थोडीसी पुस्तकोके पन्ने पलटता हूँ । बाकी सब कुछ पत्थर पर पानीके चित्र जैसा कर रखा है । तन्मय आत्मयोगमे प्रवेश है । वही उल्लास है, वही याचना है, और योग (मन, वचन और काया) बाहर पूर्वकर्म भोगता है । वेदोदयका नाश होने तक गृहवासमे रहना योग्य लगता है । परमेश्वर जान-बूझकर वेदोदय रसता है, क्योकि पचम कालमे परमार्थकी वर्षाऋतु होने देनेकी उसकी थोडी ही इच्छा लगती है । { तीर्थंकरने जो समझा और पाया उसे इस कालमे न समझ सके अथवा न पा सके ऐसी कुछ भी बात नही है | यह निर्णय बहुत समयसे कर रखा है । यद्यपि तीर्थंकर होनेकी इच्छा नही है, परन्तु तीर्थंकर} के किये अनुसार करनेकी इच्छा है, इतनी अधिक उन्मत्तता आ गयी है । उसे शात करनेकी शक्ति भी आ गयी है, परन्तु जान-बूझकर शात करनेकी इच्छा नही रखी है । आपसे निवेदन है कि वृद्धमेसे युवान बने और इस अलख वार्ताके अग्रेसरके अग्रेसर बनें । थोड़ा लिखा बहुत समझे । ' गुणस्थान समझने के लिये कहे हैं । उपशम और क्षपक ये दो प्रकारकी श्रेणियाँ है । उपशममे प्रत्यक्ष दर्शनका सम्भव नही है, क्षपकमे है । प्रत्यक्ष दर्शनके सम्भवके अभाव मे ग्यारहवें गुणस्थानसे जीव पीछे लौटता है । उपशम श्रेणी दो प्रकारकी है । एक आज्ञारूप और दूसरी मार्गके जाने बिना स्वाभाविक उपशम होनेरूप । आज्ञारूप उपशम श्रेणीवाला भी आज्ञाके आराधन तक पतित नही होता । दूसरी श्रेणीवाला अन्त तक जानेके बाद मार्गकी अज्ञानताके कारण पतित होता है । यह आँखो देखी, आत्मासे अनुभव की -1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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