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________________ २७४ श्रीमद राजचन्द्र २१७ बबई, माघ सुदी, १९४७ परम पूज्य, आपके सहज वाचनके उपयोगार्थ आपके प्रश्नोके उत्तरवाला पत्र इसके साथ भेज रहा हूँ। परमात्मामे परम स्नेह चाहे जिस विकट मार्गसे होता हो तो भी करना योग्य ही है। सरल मार्ग मिलनेपर भी उपाधिके कारण तन्मय भक्ति नहीं रहती, और एकतार स्नेह उमडता नही है । इसलिये खेद रहा करता है और वनवासकी वारवार इच्छा हुआ करती है । यद्यपि वैराग्य तो ऐसा रहता है कि प्राय आत्माको घर और वनमे कोई भेद नही लगता, परन्तु उपाधिके प्रसगके कारण उसमे उपयोग रखनेकी वारवार जरूरत रहा करती है, कि जिससे परम स्नेहपर उस समय आवरण लाना पडता है, और ऐसा परम स्नेह और अनन्य प्रेमभक्ति आये बिना देहत्याग करनेकी इच्छा नही होती। कदाचित् सर्वात्माको ऐसी ही इच्छा होगी तो चाहे जैसी दोनतासे भी उस इच्छाको वदलेंगे। परन्तु प्रेमभक्तिका पूर्ण लय आये विना देहत्याग नहीं किया जा सकेगा ऐसा लगता है, और वारवार यही रटन रहनेसे 'वनमे जाये' 'वनमे जायें' ऐसा मनमे हो आता है । आपका निरन्तर सत्सग हो तो हमे घर भी वनवास ही है। श्रीमद् भागवतमे गोपागनाकी जैसी प्रेमभक्तिका वर्णन है, ऐसी प्रेमभक्ति इस कलिकालमे प्राप्त होनी दुर्लभ है, ऐसा यद्यपि सामान्य लक्ष्य है, तथापि कलिकालमे निश्चल मतिसे यही लय लगे तो परमात्मा अनुग्रह करके शीघ्र यह भक्ति प्रदान करता है। श्रीमद् भागवतमे जडभरतजीकी सुदर आख्यायिका दी है। यह दशा वारवार याद आती है और ऐसी उन्मत्तता परमात्मप्राप्तिका परम द्वार है। यह दशा विदेह थी। भरतजीको हरिणके सगसे जन्मकी वृद्धि हुई थी और इसो कारणसे वे जडभरतके जन्ममे असग रहे थे। ऐसे कारणोसे मुझे भी असगता बहुत ही याद आती है, और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असगताके बिना परम दुख होता है। यम अतकालमे प्राणीको दुखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमे सग दुखदायक लगता है । यो अतवृत्तियों बहुतसी हैं कि जो एक ही प्रवाहकी है। लिखी नही जाती, रहा नही जाता, और आपका वियोग रहा करता है। कोई सुगम उपाय नही मिलता । उदयकर्म भोगते हुए दीनता अनुकूल नही है । भविष्यके एक क्षणका भी प्राय विचार भी नही रहता। 'सत्-सत्' इसकी रटन है । और सत्का साधन 'आप' तो वहाँ है। अधिक क्या कहे ? ईश्वरकी इच्छा ऐसो है, और उसे प्रसन्न रखे बिना छुटकारा नही है | नही तो ऐसी उपाधियुक्त दशामे न रहे, और मनमाना करें, परमपीयूषमय और प्रेमभक्तिमय ही रहे । परन्तु प्रारब्ध कर्म बलवत्तर है । आज आपका एक पत्र मिला । पढकर हृदयाकित किया । इस विपयमे हम आपको उत्तर न लिखें इस हमारी सत्ताका उपयोग आपके लिये करना योग्य नही समझते, तथापि आपको, जो रहस्य मैने समझा है उसे जताता हूँ कि जो कुछ होता है सो होने देना, न उदासीन होना, न अनुद्यमी होना, न परमात्मासे भी इच्छा करना, और न दुविधामे पडना, कदाचित् आपके कहे अनुसार अहता आडे आती हो तो यथाशक्ति उसका रोध करना, और फिर भी वह दूर न होती हो तो उसे ईश्वरार्पण कर देना, तथापि दीनता न आने देना। क्या होगा? ऐसा विचार नही करना, और जो हो सो करते रहना । अधिक उधेड-वुन करनेका प्रयत्न नही करना । अल्प भी भय नही रखना, उपाधिके लिये भविष्यके एक पलकी भी चिन्ता नही करना, चिन्ता करनेका जो अभ्यास हो गया है, उसे विस्मरण करते रहना, तभी ईश्वर प्रसन्न होगा, और तभी परमभक्ति पानेका फल है, तभी हमारा-आपका संयोग हुआ योग्य है। और उपाधिमे क्या होता है उसे हम आगे चलकर देख लेंगे। 'देख लेंगे' इसका अर्थ बहुत गभीर है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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