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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ही है। रे । मुझे मनुष्यजन्म मिला नही है। नही तो इस धर्मका ऐसा सेवन करता कि बस | परतु जैसा मेरा कर्मप्रभाव । तो भी मुझसे जैसे हो सकेगा वैसे मै इस धर्मका शुद्ध आचरण करूँगा । हे राजकुमार । अब तू आनदसे पैर नीचे रख कर अपनी तलवारको म्यानमे डाल । जिनशासनके शृंगार-तिलकरूप महामुनीश्वर यहाँ सामनेवाले सुन्दर बागमे बिराजते है। इसलिये तू वहाँ जा। उनके मुखकमलसे पवित्र उपदेशका श्रवण करके अपना मानवजन्म कृतार्थ कर ।' हे महामुनिराज | मणिधरके ऐसे वचन सुनकर मैं तो दग रह गया। कैसा जैनधर्मका प्रताप | मै मौतके पजेसे छटक गया। तब मै सचमुच दंग तो रह गया, परतु उस आश्चर्यके साथ अहो | जीवनदान देनेवाला तो यही जैनधर्म है । उस समय मेरे आनदका कोई पार नही रहा। मेरा सारा शरीर ही मानो हर्षसे बना हुआ हो ऐसा हो गया, और तुरत ही मैं उस दया करनेवाले नागदेवको प्रणाम करके और तलवारको म्यानमे रखकर दूसरे रास्तेसे होकर आपका पवित्र दर्शन करनेके लिये इस तरफ मुडा। अब मुझे उस धर्मकी यथार्थ सूक्ष्मताका उपदेश करें। एक नवकार मत्रके प्रतापसे मैने जीवनदान पाया तो इस सारे धर्मका पालन करते हुए क्या नही हो सकेगा? हे भगवन् । अब आप मुझे उस नौलडी मालाका अनुपम उपदेश दे। शार्दूलविक्रीडितवृत्त "पाम्या मोद मुनि सुणी मन विषे, वृत्तांत राजा तणो, पार्छ निज चरित्र ते वरणव्यु, उत्साह राखी घणो; थाशे त्यां मन भूपने दृढ दया, ने बोध जारी थशे, त्रीजो खंड खचीत मान सुखदा, आ मोक्षमाला विषे। (अपूर्ण) श्री परमात्मने नमः। ___ॐ नमः सच्चिदानंदाय । सज्जनता तीन भुवनका तिलकरूप है। सज्जनता सच्ची प्रीतिके मूल्यसे भरपूर चमकदार हीरा है। सज्जनता आनदका पवित्र धाम है। सज्जनता मोक्षका सरल और उत्तम राजमार्ग है। सज्जनता धर्म विषयकी प्यारी जननी है। सज्जनता ज्ञानीका परम एव दिव्य भूषण है। सज्जनता सुखका ही केवल स्थान है। सज्जनता ससारकी अनित्यतामे मात्र नित्यतारूप है। सज्जनता मनुष्यके दिव्य भागका प्रकाशित सूर्य है। सज्जनता नीतिके मार्गमे समझदार मार्गदर्शक है । सज्जनता निरतर स्तुतिपात्र लक्ष्मी है। सज्जनता सभी स्थलोमे प्रेम करनेका प्रवल मूल है। सज्जनता भव एव परभवमे अनुसरणके योग्य सुदर सड़क है। ' (दूसरे स्थलमे इसका विवेचन करनेका विचार है।) 'भावार्थ-राजाका वृत्तात सुनकर मुनि मनमे मुदित हुए, और पश्चात् अति उत्साहसे अपना चरित्र सुनाया । उधर राजाके मनमें दया दृढ होगी और इधर मुनिराजका उपदेश जारी होगा। इस तरह इस मोक्षमालाके तीसरे खडको सुखकारी अवश्य मानो।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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