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________________ ३३० श्रीमद् राजचन्द्र ३४७ बबई, फागुन वदी ३०, सोम, १९४८ बबरः आत्मस्वरूपसे हृदयरूप विश्राममूर्ति श्री सौभाग्यके प्रति, हमारा विनययुक्त प्रणाम पहुंचे। यहाँ प्रायः आत्मदशासे सहजसमाधि रहती है। बाह्य उपाधिका योग विशेषत: उदयको प्राप्त होनेसे तदनुसार प्रवृत्ति करनेमे भी स्वस्थ रहना पड़ता है। जानते है कि जो परिणाम बहुत कालमे प्राप्त होनेवाला है वह उससे थोडे कालमे प्राप्त होनेके लिये वह उपाधियोग विशेषता रहता है। आपके बहुतसे पत्र हमे मिले हैं। उनमे लिखो हुई ज्ञानसम्बन्धी वार्ता प्राय हमने पढी है । उन सब प्रश्नोंके उत्तर प्राय नही लिखे गये हैं, इसके लिए क्षमा करना योग्य है । उन पत्रोमे प्रसंगात् कोई कोई व्यावहारिक वार्ता भी लिखी है, जिसे हम चित्तपूर्वक पढ सके ऐसा होना विकट है । और उस वार्तासम्बन्धी प्रत्युत्तर लिखने जैसा नही सूझता है । इसलिये उसके लिये भी क्षमा करना योग्य है। ____ अभी यहाँ हम व्यावहारिक काम तो प्रमाणमे बहुत करते हैं, उसमे मन भी पूरी तरह लगाते है, तथापि वह मन व्यवहारमे नही जमता, अपनेमे ही लगा रहता है, इसलिये व्यवहार बहुत बोझरूप रहता है। ___ सारा लोक तीनो कालमे दु खसे पीडित माना गया है, और उसमे भी जो चल रहा है, वह तो महा दुषमकाल है, और सभी प्रकारसे विश्रातिका कारणभत जो 'कर्तव्यरूप श्री सत्सग' है, वह तो सभी कालमे प्राप्त होना दुर्लभ है । वह इस कालमे प्राप्त होना अति-अति दुर्लभ हो यह कुछ आश्चर्यकारक नही है। हम कि जिनका मन प्राय क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हास्यसे, रतिसे, अरतिसे, भयसे, शोकसे, जुगुप्सासे या शब्द आदि विषयोसे अप्रतिबद्ध जैसा है, कुटुम्बसे, धनसे, पुत्रसे, 'वैभवसे', स्त्रोसे या देहसे मुक्त जैसा है, ऐसे मनको भी सत्सगमे बाँध रखनेकी अत्यधिक इच्छा रहा करती है, ऐसा होनेपर भी हम और आप अभी प्रत्यक्षरूपसे तो वियोगमे रहा करते है यह भी पूर्व निबधनके किसी बड़े प्रबन्धके उदयमे होनेके कारण सम्भव है। ज्ञानसम्बन्धी प्रश्नोके उत्तर लिखवानेकी आपकी अभिलाषाके अनुसार करनेमे प्रतिबन्ध करनेवाली एक चित्तस्थिति हुई है जिससे अभी तो उस विषयमे क्षमा प्रदान करना योग्य है। आपको लिखी हुई कितनी ही व्यावहारिक बातें ऐसी थी कि जिन्हे हम जानते हैं । उनमे कुछ उत्तर लिखने जैसी भी थी । तथापि मन वैसी प्रवृत्ति न कर सका इसलिये क्षमा करना योग्य है। ३४८ - बबई, चैत्र सुदी २, बुध, १९४८ नमस्कार पहुंचे। यह लोकस्थिति ही ऐसी है कि उसमे सत्यकी भावना करना परम विकट है। सभी रचना असत्यके आग्रहको भावना करानेवाली है। ३४९ वंबई, चैत्र सुदी ४, शुक्र, १९४८ नमस्कार पहुंचे। लोकस्थिति आश्चर्यकारक है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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