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________________ २८ वॉ वर्ष ४९३ 'षड्दर्शनसमुच्चय' कुछ गहन है, तो भी पुन पुनः विचार करनेसे उसका बहुत कुछ बोध होगा । ज्योज्यो चित्ती शुद्धि ओर स्थिरता होती है त्यो त्यो ज्ञानीके वचनका विचार यथायोग्य हो सकता है । सर्वं ज्ञानका फल भी आत्मस्थिरता होना यही है, ऐसा वीतराग पुरुषोने जो कहा है वह अत्यन्त सत्य है । मेरे योग्य कामकाज लिखियेगा । यही विनती । लि० रायचन्दके प्रणाम विदित हो । ६४७ बबई, आसोज, १९५१ निर्वाणमार्ग अगम अगोचर है, इसमे सशय नही है । अपनी शक्तिसे, सद्गुरुके आश्रयके बिना उस मार्गको खोजना अशक्य है, ऐसा वारवार दिखायी देता है । इतना ही नही, किन्तु श्री सद्गुरुचरणके आश्रयसे जिसे बोधबीजकी प्राप्ति हुई हो ऐसे पुरुषको भी सद्गुरुके समागमका आराधन नित्य कर्तव्य है । जगतके प्रसग देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि वैसे समागम और आश्रयके बिना निरालम्ब बोध स्थिर रहना विकट है । बबई, आसोज, १९५१ दृश्यको अदृश्य किया, और अदृश्यको दृश्य किया ऐसा ज्ञानीपुरुषोका आश्चर्यकारक अनन्त ऐश्वर्यवीर्य वाणीसे कहा जा सकने योग्य नही है । ६४८ ६४९ बबई, आसोज, १९५१ - बीता हुआ एक पल भी फिर नही आता, और वह अमूल्य है, तो फिर सारी आयुस्थिति । एक पलका हीन उपयोग एक अमूल्य कौस्तुभ खो देनेसे भी विशेष हानिकारक है, तो वैसे साठ पलकी एक घडीका हीन उपयोग करनेसे कितनी हानि होनी चाहिये ? इसी तरह एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक वर्ष और अनुक्रमसे सारी आयुस्थितिका होन उपयोग, यह कितनी हानि और कितने अश्रेयका कारण होगा, यह विचार शुक्ल हृदयसे तुरत आ सकेगा । सुख और आनन्द यह सर्व प्राणियो, सर्व जीवो, सर्व सत्त्वो और सर्व जन्तुओको निरन्तर प्रिय हैं, फिर भी दुःख और आनन्द भोगते है, इसका क्या कारण होना चाहिये ? अज्ञान और उसके द्वारा जिन्दगीका हीन उपयोग । हीन उपयोग होने से रोकनेके लिये प्रत्येक प्राणीकी इच्छा होनी चाहिये, परन्तु किस साधनसे ? ६५० बवई, आसोज, १९५१ जिन पुरुषोकी अन्तर्मुखदृष्टि हुई है उन पुरुषोको भी सतत जागृतिरूप शिक्षा श्री वीतरागने दी है, क्योकि अनन्तकालके अध्यासवाले पदार्थोंका सग है वह कुछ भी दृष्टिको आकर्षित करे ऐसा भय रखना योग्य है। ऐसी भूमिकामे इस प्रकारकी शिक्षा योग्य है, ऐसा है तो फिर जिसकी विचारदशा है ऐसे मुमुक्षुजीवको सतत जागृति रखना योग्य है, ऐसा कहनेमे न आया हो, तो भी स्पष्ट समझा जा सकता है कि मुमुक्षुजीवको जिस जिस प्रकारसे पर अभ्यास होने योग्य पदार्थ आदिका त्याग हो, उस उस प्रकारसे अवश्य करना योग्य है। यद्यपि आरम्भ- परिगहका त्याग स्थूल दिखायी देता है तथापि अन्तर्मुखवृत्तिका हेतु होनेसे वारवार उसके त्यागका उपदेश दिया है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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