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________________ २९ वाँ वर्ष ६५१ ववई, कात्तिक, १९५२ 'जैसा है वैसा आत्मस्वरूप जाना, इसका नाम समझना है। इससे उपयोग अन्य विकल्पसे रहित हुआ, इसका नाम शात होना है। वस्तुतः दोनो एक ही है। जैसा है वैसा समझनेसे उपयोग स्वरूपमे शात हो गया, और आत्मा स्वभावमय हो गया, यह प्रथम वाक्य-'समजीने शमाई रह्या' का अर्थ है। अन्य पदार्थके संयोगमे जो अध्यास था, और उस अध्यासमे जो आत्मत्व माना था वह अध्यासरूप आत्मत्व शात हो गया, यह दूसरे वाक्य-'समजीने शमाई गया' का अर्थ है । पर्यायातरसे अर्थातर हो सकता है। वास्तवमे दोनो वाक्योका परमार्थ एक ही विचारणीय है। जिस जिसने समझा उस उसने मेरा तेरा इत्यादि महत्व, ममत्व शात कर दिया; क्योकि कोई भी निज स्वभाव वसा देखा नही, और निज स्वभाव तो अचित्य, अव्यावाधस्वरूप सर्वथा भिन्न देखा, इसलिये उसीमे समाविष्ट हो गया। आत्माके सिवाय अन्यमे स्वमान्यता थी, उसे दूर कर परमार्थसे मौन हुआ, वाणीसे 'यह इसका है' इत्यादि कथन करनेख्प व्यवहार वचनादि योग तक क्वचित् रहा, तथापि आत्मासे 'यह मेरा है', यह विकल्प सर्वथा शात हो गया, यथातथ्य अचिंत्य स्वानुभवगोचरपदमे लीनता हो गयी। ये दोनो वाक्य लोकभाषामे प्रचलित हुए है, वे 'आत्मभाषा'मेसे आये है। जो उपर्यक्त प्रकारसे शात नही हुए वे समझे नही है ऐसा इस वाक्यका सारभूत अर्थ हुआ, अथवा जितने अंशमे शात हुए उतने अशमे समझे, और जिस प्रकारसे शात हुए उस प्रकारसे समझे इतना विभागार्थ हो सकने योग्य है, तथापि मुख्य अर्थमे उपयोग लगाना योग्य है। अनतकालसे यम, नियम, शास्त्रावलोकन आदि कार्य करनेपर भी समझना और शात होना यह प्रकार आत्मामे नही आया, और इससे परिभ्रमणनिवृत्ति नही हुई। जो कोई समझने और शात होनेका ऐक्य करे, वह स्वानुभवपदमे रहे, उसका परिभ्रमण निवृत्त हो जाये । सद्गुरुकी आज्ञाका विचार किये बिना जीवने उस परमार्थको जाना नही, और जाननेमे प्रतिवरूप असत्सग, स्वच्छद और अविचारका निरोध नहीं किया, जिससे समझना और शात होना तथा दोनोका ऐक्य नही हुआ, ऐसा निश्चय प्रसिद्ध है। १. देखें आक ६४५ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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