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________________ २६ वां वर्ष ३६७ प्राय वर्तमानकालमे जीवने या तो शुष्कक्रियाप्रधानतामे मोक्षमार्गको कल्पना की है, अथवा बाह्यक्रिया ओर शुद्ध व्यवहारक्रियाका उत्यापन करनेमे मोक्षमार्गकी कल्पना की है, अथवा स्वमति कल्पनासे अध्यात्म ग्रन्थ पढकर कथन मात्र अध्यात्म पाकर मोक्षमार्गको कल्पना की है। ऐसी कल्पना कर लेनेसे जीवको सत्समागमादि हेतुमे उस उस मान्यताका आग्रह आडे आकर परमार्थ प्राप्त करनेमे स्तभभूत होता है। जो जीव शुष्कक्रियाप्रधानतामे मोक्षमार्गकी कल्पना करते हैं, उन जीवोको तथारूप उपदेशका पोषण भी रहा करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ऐसे चार प्रकारसे मोक्षमार्ग कहे जानेपर भी प्रथमके दो पद तो उन्होने विस्मृत किये जैसे होते है, और चारित्र शब्दका अर्थ वेश तथा मात्र बाह्य विरतिमे समझे हुए जैसा होता है। तप शब्दका अर्थ मात्र उपवासादि व्रतका करना और वह भी बाह्य सज्ञासे उसमे समझे हुए जैसा होता है, और क्वचित् ज्ञान, दर्शन पद कहने पड़े तो वहाँ लौकिक कथन जैसे भावोके कथनको ज्ञान और उसकी प्रतीति अथवा उसे कहनेवालेकी प्रतीतिमे दर्शन शब्दका अर्थ समझने जैसा रहता है। ____ जो जीव बाह्यक्रिया (अर्थात् दानादि) और शुद्ध व्यवहार क्रियाका उत्थापन करनेमें मोक्षमार्ग समझते है, वे जोव शास्त्रोके किसी एक वचनको नासमझीसे ग्रहण करके समझते हैं। दानादि क्रिया यदि किसी अहकारादिसे, निदानबुद्धिसे, अथवा जहाँ वैसी क्रिया सभव न हो ऐसे छठे गुणस्थानादि स्थानमे करे, तो वह ससारहेतु है, ऐसा शास्त्रोका मूल आशय है । परन्तु दानादि क्रियाका समूल उत्थापन करनेका शास्त्रोका हेतु नही है, वे मात्र अपनी मति कल्पनासे निषेध करते है। तथा व्यवहार दो प्रकारका है, एक परमार्थमूलहेतु व्यवहार और दूसरा व्यवहाररूप व्यवहार । पूर्वकालमे इस जोवने अनतबार किया फिर भी आत्मार्थ नहीं हुआ, ऐसे शास्त्रोमे वाक्य हैं, उन वाक्योको ग्रहण करके सम्पूर्ण व्यवहारका उत्थापन करनेवाले अपनेको समझे हुए मानते हैं, परन्तु शास्त्रकारने तो वैसा कुछ नही कहा है। जो व्यवहार परमार्थहेतुमूल व्यवहार नहीं है, और मात्र व्यवहारहेतु व्यवहार है, उसके दुराग्रहका शास्त्रकारने निषेध किया है । जिस व्यवहारका फल चार गति हो वह व्यवहार व्यवहारहेतु कहा जा सकता है, अथवा जिस व्यवहारसे आत्माकी विभाव दशा जाने योग्य न हो उस व्यवहारको व्यवहारहेतु व्यवहार कहा जाता है। इसका शास्त्रकारने निषेध किया है, वह भी एकातसे नही, केवल दुराग्रहसे अथवा उसीमे मोक्षमार्ग माननेवालेको इस निषेधसे सच्चे व्यवहारपर लानेके लिये किया है। और परमार्थमूलहेतु व्यवहार शम, सवेग, निर्वेद, अनुकपा, आस्था अथवा सद्गुरु, सत्शास्त्र और मनवचनादि समिति तथा गुप्ति, उसका निषेध नहीं किया है, और यदि उसका निषेध करने योग्य हो तो फिर शास्त्रोका उपदेश करके वाकी क्या समझाने जैसा रहता था, अथवा क्या साधन करानेका बताना बाकी रहता था कि शास्त्रोका उपदेश किया ? अर्थात् वैसे व्यवहारसे परमार्थ प्राप्त किया जाता है, और जीवको वैसा व्यवहार अवश्य ग्रहण करना चाहिये कि जिससे परमार्थकी प्राप्ति होगी, ऐसा शास्त्रोका आशय है। शुष्कअध्यात्मी अथवा उसके प्रसगमे आनेवाले इस आशयको समझे विना उस व्यवहारका उत्थापन करके अपने और परके लिये दुर्लभवोधिता करते है। शम, सवेगादि गुण उत्पन्न होनेपर अथवा वैराग्यविशेष एव निष्पक्षता होनेपर, कपायादि क्षीण होनेपर, अथवा कुछ भी प्रज्ञाविशेषसे समझनेको योग्यता होनेपर, जो सद्गुरुगमसे समझने योग्य अध्यात्म ग्रन्य, तब तक प्रायः शस्त्र जैसे है, उन्हे अपनी कल्पनासे जैसे-तैसे पढकर, निश्चय करके, वैसा अतभेद हए विना अथवा दशा वदले विना, विभाव दुर हुए विना अपनेमे ज्ञानको कल्पना करता है; और क्रिया तथा शुद्ध व्यवहाररहित होकर प्रवृत्ति करता है, ऐसा तीसरा प्रकार शुष्कजध्यात्मीका है। जगह जग
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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