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श्रीमद् राजचन्द्र
स्मरण-पोथी ?, पृष्ठ १५] - ज्ञानीपुरुषोंको समय समयमें अनंत संयमपरिणाग वर्धमान होते है ऐसा जो सर्वज्ञने कहा है वह सत्य है। . वह संयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिले तथा ब्रह्मरम के प्रति स्थिरतासे उत्पन्न होता है।
श्री तीर्थकर आत्माको संकोच-विकासका भाजन योगदशामें मानते हैं, यह सिद्धांत विशेषतः विचारणीय है।
[संस्मरण-गोगी ?, पृष्ठ ५६]
२५ ध्यान ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान व्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान
गंस्मरण-पोपी १, पाठ ५७]
२६ चिधातुमय, परमशांत, अडिग
एकाग्र, एकस्वभावमय असंख्यात प्रदेशात्मक पुरुषाकार चिदानंदघन उसका ध्यान करें।
ज्ञा. व. ढ० व.
मो०
अं
--का आत्यंतिक अभाव । प्रदेश संबंधको प्राप्त हुए
पूर्वनिष्पन्न, · सत्ताप्राप्त,
. उदयप्राप्त, उदीरणाप्राप्त ... .. .. .. चार ऐसे .''
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