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________________ ४५० श्रीमद् राजचन्द्र मिथ्यात्वका वह सवल वोज है, ऐसा तीर्थंकरादिका निश्चय है, वह हमे तो सप्रमाण लगता है। दूसरी याचना भी कर्तव्य नही है, क्योकि वह भी हमे परिश्रमका हेतु है। हमे व्यवहारका परिश्रम देकर व्यवहार निभाना, यह इस जोवकी सद्वत्तिका बहुत ही अल्पत्व बताता है, क्योकि हमारे लिये परिश्रम उठाकर आपको व्यवहार चला लेना पडता हो तो वह आपके लिये हितकारी है, और हमारे लिये वैसे दुष्ट निमित्तका कारण नही है, ऐसी स्थिति होनेपर भी हमारे चित्तमे ऐमा विचार रहता है कि जब तक हमे परिग्रहादिका लेना-देना हो, ऐसा व्यवहार उदयमे हो तब तक स्वय उस कार्यको करना, अथवा व्यावहारिक सम्बन्धी आदि द्वारा करना, परन्तु मुमुक्षु पुरुषको तत्सम्बन्धी परिश्रम देकर तो नही करना, क्योकि वेले कारणसे जीवको मलिन वासनाका उद्भव होना सम्भव है। कदाचित् हमारा चित्त शुद्ध ही रहे ऐसा है, तथापि काल ऐसा है कि यदि हम उस शुद्धिको द्रव्यसे भी रखें तो सन्मुख जीवमे विषमता उत्पन्न न हो, और अशुद्ध वृत्तिवान जीव भी तदनुसार व्यवहार कर परम पुरुषोके मार्गका नाश न करे। इत्यादि विचारमे मेरा चित्त रहता है। तो फिर जिसका परमार्थ-बल या चित्तशुद्धि हमारेसे कम हो उसे तो अवश्य ही वह मार्गणा प्रबलतासे रखनी चाहिये, यही उसके लिये बलवान श्रेय है, और आप जैसे मुमुक्षुपुरुषको तो अवश्य वैसा वर्तन करना योग्य है । क्योकि आपका अनुकरण सहज ही दूसरे मुमुक्षुओंके हिताहितका कारण हो सके। प्राण जाने जैसी विषम अवस्थामे भी आपको निष्कामता ही रखनी योग्य है, ऐसा हमारा विचार, आपको आजीविकासे चाहे जैसे दु खोकी, अनुकपाके प्रति जाते हुए भी मिटता नही है, प्रत्युत अधिक बलवान होता है। इस विषयमे विशेष कारण बताकर आपको निश्चय करानेकी इच्छा है, और वह होगा ऐसा हमे निश्चय रहता है। — इस प्रकार आपके या दूसरे मुमुक्षुजीवोंके हितके लिये मुझे जो योग्य लगा वह लिखा है। इतना लिखनेके बाद अपने आत्माके लिये उस सम्बन्धमे मेरा अपना कुछ दूसरा भी विचार रहता है, जिसे लिखना योग्य नही था, परन्तु आपके आत्माको कुछ दुख देने जैसा हमने लिखा है तब उस लिखनेको योग्य समझकर लिखा है । वह इस प्रकार है कि जब तक परिग्रहादिका लेना-देना हो, ऐसा व्यवहार मुझे उदयमे हो तब तक जिस किसी भी निष्काम मुमुक्षु या सत्पात्र जीवकी तथा अनुकंपायोग्य जीवकी, उसे बताये बिना, हमसे जो कुछ भी सेवाचाकरी हो सके, उसे द्रव्यादि पदार्थसे भी करना, क्योकि ऐसा मार्ग ऋषभ आदि महापुरुषोने भी कही कही जीवको गुण निष्पन्नताके लिये माना है, यह हमारा निजी (आतरिक) विचार है, और ऐसे आचरणका सत्पुरुषके लिये निषेध नहीं है, किन्तु किसी तरह कर्तव्य है। यदि वह विषय या वह सेवाचाकरी'मात्र सन्मुख जीवके परमार्थको रोधक होते हो तो सत्पुरुषको भी उनका उपशमन करना चाहिये। असगता होने या सत्सगके योगका लाभ प्राप्त होनेके लिये आपके चित्तमे ऐसा रहता है कि केशवलाल, अबक इत्यादिसे गृहव्यवहार चलाया जा सके तो मुझसे छूटा जा सकता है। अन्यथा, आप उस व्यवहारको छोड सकें, वैसा कुछ कारणोसे नही हो सकता, यह बात हम जानते हैं, फिर भी आपके लिये उसे बारबार लिखना योग्य नही है, ऐसा जानकर उसका भी निषेध किया है । यही विनती।। प्रणाम प्राप्त हो। ५५१ बबई, मार्गशीर्ष, १९५१ श्री सोभाग, __ . श्री जिनेंद्र आत्मपरिणामकी स्वस्थताको समाधि और आत्मपरिणामकी अस्वस्थताको असमाधि कहते है, यह अनुभवज्ञानसे देखते हुए परम सत्य है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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