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________________ २६ वॉ वर्ष ३९१ आत्माओके प्रति रहतो है, अथवा सर्व जगतके प्रति रहती है। किसीके प्रति कुछ विशेष नही करना अथवा न्यून नही करना, और यदि करना हो तो वैसा एकसा वर्तन सर्व जगत के प्रति करना, ऐसा ज्ञान आत्माको बहुत समय से दृढ है, निश्चयरूप है । किसी स्थलमे न्यूनता, विशेषता, अथवा कुछ वैसी सम-विषम चेष्टासे वर्तन दीखता हो तो जरूर वह आत्मस्थितिसे, आत्मबुद्धिसे नही होता, ऐसा लगता है । पूर्वप्रबन्धित प्रारब्धके योगसे कुछ वैसा उदयभावरूपसे होता हो तो उसमे भी समता है । किसीके प्रति न्यूनता या अधिकता कुछ भी आत्माको रुचिकर नही है, वहां फिर अन्य अवस्थाका विकल्प होना योग्य नही है, यह आपको क्या कहे ? संक्षेपमे लिखा है । सबसे अभिन्नभावना है, जिसकी जितनी योग्यता रहती है, उसके प्रति अभिन्नभावकी उतनी स्फूर्ति होती है, क्वचित् करुणावुद्धिसे विशेष स्फूर्ति होती है, परन्तु विषमता से अथवा विपय, परिग्रहादि कारणप्रत्ययसे उसके प्रति वर्तन करनेका आत्मामे कोई सकल्प प्रतीत नही होता । अविकल्परूप स्थिति है । विशेष क्या कहूँ ? हमे कुछ हमारा नही है, या दूसरेका नही है या दूसरा नही है, जैसे है वैसे है । आत्माकी जैसी स्थिति है, वैसी स्थिति है । सर्व प्रकारकी वर्तना निष्कपटतासे उदयकी है, सम-विषमता नही है । सहजानन्द स्थिति है । जहाँ वैसे हो वहाँ अन्य पदार्थमे आसक्त बुद्धि योग्य नही, नही होती । 1000 o ') ४७० बबई, आसोज सुदी १, मगल, १९४९ 'ज्ञानीपुरुषके प्रति अभिन्नवृद्धि हो, यह कल्याणका महान निश्चय है', ऐसा सर्व महात्मा पुरुषका अभिप्राय प्रतीत होता है । आप तथा वे, जिनकी देह अभी अन्य वेदसे रहती है, आप दोनो ही ज्ञानीपुरुपके प्रति जिस प्रकार विशेष निर्मलतासे अभिन्नता आये उस प्रकारकी बात प्रसंगोपात्त करें, यह योग्य है, और परस्परमे अर्थात् उनके और आपके बीच निर्मल प्रेम रहे वैसी प्रवृत्ति करनेमे बाधा नही है, परन्तु वह प्रेम जात्यन्तर होना योग्य है । जैसा स्त्री पुरुषका कामादि कारणसे प्रेम होता है, वैसा प्रेम नही, परन्तु ज्ञानीपुरुपके प्रति दोनोका भक्तिराग है, ऐसा दोनोका एक ही गुरुके प्रति शिष्यभाव देखकर, और निरन्तरका सत्सग रहा करता है यह जानकर, भाई जैसी बुद्धिसे, वैसे प्रेमसे रहा जाये, यह बात विशेष योग्य है | ज्ञानीपुरुपके प्रति भिन्नभावको सर्वथा दूर करना योग्य है । श्रीमद्भागवतके बदले अभी योगवासिष्ठादि पढना योग्य है । इस पत्रका जो अर्थ आपकी समझमे आये वह लिखिये । ४७१ ववई, आसोज सुदी ५, शनि, १९४९ आत्माको समाधि होनेके लिये, आत्मस्वरूपमे स्थितिके लिये सुधारस कि जो मुखमे रहता है, वह एक अपूर्व आधार है, इसलिये उसे किसी प्रकारसे वीजज्ञान कहें तो कोई हानि नही है । मात्र इतना भेद है कि वह ज्ञान, ज्ञानीपुरुष कि जो उससे आगे है, आत्मा है, ऐसा जानकार होना चाहिये । द्रव्यसे द्रव्य नही मिलता, इसे जाननेवालेको कोई कर्तव्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु वह कव ? स्वद्रव्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे यथावस्थित समझमे आनेपर स्वद्रव्य स्वरूपपरिणाम से परिणमित होकर अन्य द्रव्यके प्रति सर्वथा उदास होकर, कृतकृत्य होनेपर कुछ कर्तव्य नही रहता, ऐसा योग्य है, और ऐसा ही है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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