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श्रीमद राजचन्द्र
हो, रग, राग, मौज-शौक और ऐशो-आराम करनेका तत्त्व बताया हो वहाँसे अपने आत्माको सत्-शाति नही है । कारण कि इसे धर्ममत माना जाये तो सारा ससार धर्ममतयुक्त ही है । प्रत्येक गृहस्थका घर इसी योजनासे भरपूर होता है । वाल-बच्चे, स्त्री, राग-रंग, गान-तान वहाँ जमा रहता है, और उस घरको धर्मं-मंदिर कहे तो फिर अधर्म -स्थान कौन-सा ? और फिर जैसे हम बरताव करते है वैसे बरताव करनेसे बुरा भी क्या ? यदि कोई यो कहे कि उस धर्म-मदिरमे तो प्रभुकी भक्ति हो सकती है तो उनके लिये खेदपूर्वक इतना ही उत्तर देना है कि वे परमात्मतत्त्व और उसकी वैराग्यमय भक्तिको जानते नही हैं । चाहे जो हो परन्तु हमे अपने मूल विचारपर आना चाहिये । तत्त्वज्ञानको दृष्टिसे आत्मा ससारमे विपयादिक मलिनतासे पर्यटन करता है । उस मलिनताका क्षय विशुद्ध भावजलसे होना चाहिये | अर्हत के कहे हुए तत्त्वरूपी साबुन और वैराग्यरूपी जलसे उत्तम आचाररूप पत्थरपर रखकर आत्मवस्त्रको धोनेवाला निर्ग्रन्थ गुरु है | इसमे यदि वैराग्यजल न हो तो सभी साधन कुछ नही कर सकते, इसलिये वैराग्यको धर्मका स्वरूप कहा जा सकता है। यदि अर्हतप्रणीत तत्त्व वैराग्यका ही वोध देते हैं तो वही धर्मका स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये ।
शिक्षापाठ ५८ धर्मके मतभेद -- भाग १
इस जगतीतलपर अनेक प्रकार के धर्ममत विद्यमान है। ऐसे मतभेद अनादिकालसे है, यह न्यायसिद्ध है । परन्तु ये मतभेद कुछ-कुछ रूपान्तरित होते रहते है । इस सम्बन्धमे कुछ विचार करें ।
कितने मतभेद परस्पर मिलते हुए और कितने परस्पर विरुद्ध हैं, कितने ही मतभेद केवल नास्तिको द्वारा फैलाये हुए भी हैं । कितने सामान्य नीतिको धर्म कहते हैं । कितने ज्ञानको ही धर्मं कहते हैं। कितने अज्ञानको घर्ममत कहते हे | कितने भक्तिको कहते है, कितने क्रियाको कहते है, कितने विनयको कहते है और कितने शरीर की रक्षा करना इसे धर्ममत कहते हैं ।
इन धर्ममतस्थापकोने ऐसा उपदेश किया मालूम होता है कि हम जो कहते हैं वह सर्वज्ञवाणीरूप और सत्य है, बाकी के सभी मत असत्य और कुतर्कवादी है, इसलिये उन मतवादियोने परस्पर योग्य या अयोग्य खडन किया है | वेदान्तके उपदेशक यही उपदेश देते हैं, साख्यका भी यही उपदेश है, बुद्धका भी यही उपदेश है, न्याय-मतवालोका भी यही उपदेश है, वैशेषिकोका यही उपदेश है, शक्तिपथीका यही उपदेश है, वैष्णवादिकका यही उपदेश है, इस्लामका यही उपदेश है, और ईसा मसीहका यही उपदेश है कि यह हमारा कथन आपको सर्व सिद्धि देगा । तब हमे अव क्या विचार करना ?
वादी प्रतिवादी दोनो सच्चे नही होते और दोनो झूठे भी नही होते । बहुत हुआ तो वादी कुछ अधिक सच्चा और प्रतिवादी कुछ कम झूठा होता है ।" दोनो की वात सर्वथा झूठी नही होनी चाहिये । ऐसा विचार करने पर तो एक धर्ममत सच्चा ठहरता है और बाकीके झूठे ठहरते हे ।
जिज्ञासु - यह एक आश्चर्यकारक बात है । सबको असत्य और सवको सत्य कैसे कहा जा सकता है ? यदि सबको असत्य कहे तो हम नास्तिक ठहरते है और धर्मकी सच्चाई जाती रहती है। यह तो निश्चित है कि धर्मकी सच्चाई है, और सृष्टिपर उसकी आवश्यकता है। एक धर्ममत सत्य और बाकीके सव असत्य ऐसा कहे तो इस वातको सिद्ध करके बतलाना चाहिये । सबको सत्य कहे तो फिर यह बालूकी भीत हुई, क्योकि फिर इतने सारे मतभेद किसलिये हो ? सब एक ही प्रकारके मत स्थापित करनेका यत्न किसलिये, न करें ? इस तरह अन्योन्यके विरोधाभासके विचारसे थोड़ी देर रुकना पडता है।
१ द्वितीयावृत्ति में यह पाठ विशेष है--' अथवा प्रतिवादी कुछ अधिक सच्चा और वादी कुछ कम झूठा होता है ।"