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________________ ३०८ श्रीमद राजचन्द्र , ३. सन्मतितर्कमे श्री सिद्धसेन दिवाकरने कहा है कि 'जितने वचनमार्ग हैं उतने नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय है । - - इंट ४. अक्षय भगत कविने कहा है * कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छे महा भजननो मर्म, जो तुं जीव तो कर्त्ता हरि, जो तुं शिव तो वस्तु खरी, तं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ ॥' उही 21 २८५ ॐ वाणिया, LOST अपने से अपनेको अपूर्व प्राप्त होना "दुष्कर है, जिससे प्राप्त होता है, उसका स्वरूप पहचाना ( 4157122 जाना दुष्कर है, और जीवका भुलावा भी यहीं है 250-1, 'इस पत्र लिखे हुए प्रश्नो के उत्तर संक्षेपमे निम्नलिखित है— -- १, २, ३, ये तीनो प्रश्न स्मृतिमे होंगे। इनमे यो बताया गया है कि- " ( १ ) ठाणागमे जो आठ वाद़ियोके वाद कहें है उनमेंसे आपको और हमे किस वाद मे दाखिल होना ? ( २ ) इन आठ वांदोसे कोई भिन्नं मार्ग अपनाने योग्य हो तो उसे जानने की आकाक्षा है'। ( ३ ) अथवा आठों वादियोके मार्गको " एकीकरण करना ही मार्ग है या किस तरह ? अथवो उन आठ वादियो के एकीकरणमे कुछ न्यूनीधिकता - करके मार्ग ग्रहण करने योग्य है ? और है तो क्या ?", I 27 ऐसा लिखा है, इस विषयमे कहना है कि इन आठ वादके अतिरिक्त अन्य दर्शनोमे, सम्प्रदायोमे मार्ग कुछ ( अन्वित ) - जुड़ा हुआ रहता है, नही तो प्राय भिन्न हो (व्यतिरिक्त) रहता है । वह वाद, दर्शन, सम्प्रदाय ये सब किसी तरह प्राप्ति कारणरूप होते है, परन्तु सम्यग्ज्ञानीके बिना दूसरे जीवोके" लिये तो बन्धून भी होते हैं । जिसे मार्ग की इच्छा उत्पन्न हुई है। उसे इन सबका साधारण ज्ञान करना, पढ़ना, और विचार करना, तथा बाकीमे मध्यस्थ रहना योग्य है । साधारण ज्ञानका अर्थ यहाँ यह समझें कि सभी शास्त्रोमे वर्णन करते हुए जिस ज्ञानमे, अधिक भिन्नता न आयी, हो वह : तीर्थंकर, लाकर गर्भमे उत्पन्न हो अथवा जन्म ले तब, या उसके बाद देवता जानें कि यह तीर्थंकर है ? और जानें तो किस तरह ? इसका उत्तर यह है कि जिन्हे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है वे देवता 'अवधि-: ज्ञानसे' तीर्थंकरको जानते हैं, सभी नही जानते । जिन प्रकृतियोके नाशंसे 'जन्मत.' तीर्थंकर अवधिज्ञानसंयुक्त होते है वे प्रकृतियाँ उनमे दिखायी न देने से वे सम्यग्ज्ञानी देवता तीर्थंकरको पहचान सकते हैं । यही विज्ञापन है । - १० 501112 सुदी ७, शुक्र, १९४७, - मुमुक्षुताके सन्मुख होनेके इच्छुक आप दोनोको यथायोग्य प्रणाम करता हूँ । प्रायः परमार्थ मौनमे रहनेकी स्थिति अभी उदयमे है और इसी कारण तद्नुसार प्रवृत्ति करने काल व्यतीत होता है, और इसी कारणसे आपके प्रश्नो के उत्तर ऊपर संक्षेपमे दिये हैं । - शतमूर्ति सौभाग्य अभी मोरबीमे है । ***** I 1P :{ ܪ0 S ट १. तृतीय काण्ड, गाथा ४७ *भावार्थ-केर्तृत्वभाव मिट जाये तो कर्म छूट जायें, यह महा भक्तिका मर्म है । यदि तू जीव है तो हरि कर्त्ता है, और यदि तू शिव है' तो वस्तु-तत्त्व- परमसत् सत्य है । तू जीव है और तू नाथ है' अर्थात् द्वैत न होकर अद्वैत हे । यो कहकर अक्षय भगतने अपने हाथ झाड दिये. 1157
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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