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श्रीमद् राजचन्द्र कल्पना प्राय कल्पना ही रहा करतो है । यदि जीवको वह कल्पना न हो और ज्ञान भी न हो तो उसकी दुखकारक भयकर स्थिति अकथनीय होना सम्भव है। सर्व प्रकारकी आशा, उसमे भी आत्माके सिवाय दूससे अन्य पदार्थोकी आशामे समावि किस प्रकारसे हो, यह कहे।
४५७ बम्बई, द्वि० आषाढ सुदी ६, बुध, १९४९ रखा कुछ रहता नही, और छोडा कुछ जाता नहीं, ऐसे परमार्थका विचारकर किसीके प्रति दीनता करना या विशेपता दिखाना योग्य नही है। समागममे दीनतासे नही आना चाहिये।
४५८ बम्बई, द्वि० आषाढ़ सुदो १२, मगल, १९४९ ___ अवालालके नामसे एक पत्र लिखा है, वह पहुँचा होगा। उसमे आज एक पत्र लिखनेका सूचन किया है। लगभग एक घटे तक विचार करते हुए कुछ सूझ न आनेसे पत्र नही लिखा जा सका सो क्षमा योग्य है।
उपाधिके कारणसे अभी यहां स्थिति सम्भव है। आप किन्ही भाइयोका प्रसग, इस तरफ अभी कुछ थोडे समयमे होना सम्भव हो तो सूचित कोजियेगा।
भक्तिपूर्वक प्रणाम।
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बम्बई, द्वि० आषाढ वदी ६, १९४९ श्री कृष्णादिको क्रिया उदासीन जैसी थो। जिस जीवको सम्यक्त्व उत्पन्न हो, उसे सर्व प्रकारकी ससारी क्रियाएँ उसी समय न हो, ऐसा कोई नियम नही है । सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके बाद ससारी क्रियाओका रसरहितरूपसे होना सम्भव है। प्राय ऐसी कोई भी क्रिया उस जीवकी नही होती कि जिससे परमार्थके विपयमे भ्रान्ति हो, और जब तक परमार्थके विषयमे भ्रान्ति न हो तब तक दूसरी क्रियासे सम्यक्त्वको बाधा नही आती। इस जगतके लोग सर्पकी पूजा करते हैं, वे वस्तुतः पूज्यबुद्धिसे पूजा नहीं करते, परन्तु भयसे पूजा करते है, भावसे पूजा नही करते, और इष्टदेवकी पूजा लोग अत्यन्त भावसे करते हैं । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव इस ससारका सेवन करता हुआ दिखाई देता है, वह पूर्वकालमे निवधन किये हुए प्रारब्ध कर्मसे दिखाई देता है। वस्तुत भावसे इस ससारमे उसका प्रतिबन्ध संगत नही है, पूर्वकर्मके उदयरूप भयसे सगत होता है। जितने अशमे भावप्रतिबध न हो उतने अशमे ही सम्यग्दृष्टिपन उस जीवको होता है।
____ अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया और लोभका सम्यक्त्वके सिवाय जाना सम्भव नही है, ऐसा जो कहा जाता है, वह यथार्थ है। ससारी पदार्थोमे तीव्र स्नेहके बिना जीवको ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ नही होते कि जिस कारणसे उसे अनन्त ससारका अनुबध हो । जिस जीवको ससारी पदार्थाम तीन स्नेह रहता हो, उसे किसी प्रसगमे भी अनन्तानुवन्धी चतुष्कमेसे किसीका भी उदय होना सम्भव है, ओर जब तक उन पदार्थोंमे तोव स्नेह हो तब तक वह जीव अवश्य परमार्थमार्गी नही होता । परमार्थमार्गका लक्षण यह है कि अपरमार्थका सेवन करते हुए जीव सभी प्रकारसे सुख अथवा दुःखमे कायर हुआ करे । दु खमे कायरता कदाचित् दूसरे जीवोको भी हो सकती है, परन्तु ससारसुखकी प्राप्तिमे भी कायरता, उस सुखकी अरुचि, नीरसता परमार्यमार्गी पुरुषको होती है ।
वैमी नीरसता जीवको परमार्थज्ञानसे अथवा परमार्थज्ञानीपुरुषके निश्चयसे होना सभव है, दूसरे प्रकारसे होना सभव नही है । परमार्थज्ञानसे इस ससारको अपरमार्थरूप जानकर, फिर उसके प्रति तीव्र