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श्रीमान राजघन्द्र
स्थल
पवरण
पृष्ठ-पंक्ति जे अबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदंसिणो। असुद्धं तेसिं परवकंतं सफल होइ सव्वसो॥ जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसि परक्कंतं अफलं होइ सव्वसो॥ [सूत्रकृतांग १-८-२२,२३. पृ० ४२] ६८६-२६ जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ॥
[आचारांग १-३-४-१२२]
१९१-२९ जे (ये) जाणइ अरिहंते दव्वगुणपज्जवेहि य । सो जाणइ नियअप्पं मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥ प्रवचनसार १-८०, पृ० १०१ कुन्दकुन्दाचार्य]
५८१-२१ जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो, मृगतृष्णाजळ त्रैलोक; जीव्यु धन्य तेहनु । दासी आशा पिशाची थई रही, काम क्रोध ते केदी लोक; जीव्यु दोसे खातां पीतां बोलतां, नित्ये छे निरंजन निराकार; जीव्यु जाणे संत सलूणा तेहने, जेने होय छेल्लो अवतार; जीव्यु जगपावनकर ते अवतर्या, अन्य मात उदरनो भार; जीव्यु तेने चौद लोकमां विचरतां अंतराय कोईए नव थाय; जीव्यु रिद्धि सिद्धि ते दासीओ थई रही, ब्रह्मानन्द हृदे न समाय जीव्यु
[मनहरपद-मनोहरदासकृत]
६४६-३ . जे पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । जो अपनो धन विवहरै, सो धनपति धर्मज्ञ ॥ समयसार नाटक, मोक्षद्वार १८ पृ० २८६] ७९०-६ जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेमज जीवस्वभाव रे । , . . . . . ते जिनवीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे ॥ ... , . .. .
[नयरहस्य श्री सीमंधरजिन-स्तवन २-१७ यशोविजय] ४६५-१२, १७; ८२१-३४ जैसें कंचुकत्यागसें, विनसत नहीं भुजंग।। देहत्यागसें, जीव पुनि, तैसें रहत अभंग ।। [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजा] . . . . . १६५-१ जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति माही; तृपावन्त मृषाजल कारण अटतु है। तैसें भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटतु है । आगेको धुकत घाई, पोछे बछरा चवाई जैसें नैन हीन नर जेवरी वटतु है । तैसें मूढ चेतन सुकृत करतूति करै। रोवत हसत फल खोवत खटतु है ।।
[समयसार नाटक बंधद्वार २, पृ० २४२] ३६५-१ जैसी निरभेद रूप निहचे अतीत हुती, तसौ निरभेद अब, भेदको न गहेगी ! दीस कर्मरहित सहित सुख समाधान, पायौ निज थान फिर बाहरि न बहेगी।