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________________ अवतरण कवहूं कदापि अपनौ सुभाव त्यागि करि राग रस. राचिकै न परवस्तु गहँगो अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयौ याहि भांति आगम अनंत काल रहँगो || परिशिष्ट १ [समयसारनाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०८ पृ. ३७६-७] [द्रव्यसंग्रह-३४] [द्रव्यसंग्रह ५६ ] (यो) जोगा पयडिपदेसा [ठिदि अणुभागा कसायदो होंति] कवि चितो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू | लद्धूणय एयत्तं तदा हु तं तस्स निच्चयं झाणं ॥ जंगमनी जुक्ति तो सर्वे जाणीए, समीप रहे पण शरीरनो नहि संग जो, एकांते वसवुं रे एक ज आसने, भूल पड़े तो पड़े भजनमा भंग जो, ओघवजी अबला ते साघन शुं करे ? [ओधवजीनो संदेशो गरबी ३ - ३ रघुनाथदास ] जं मं ति पासा तं मोणं ति पासहा (जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा ) (वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणो जइ वि होइ तित्थयरो |) णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ महद्वियवत्वाणं । तरतम योगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार, [पट्प्राभृतादि संग्रह - सूत्रप्राभृत २३ - कुंदकुंदाचार्य ] [?] तहारुवाणं समणाणं ( यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।) तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः । ते माटे ऊभा कर जोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनंदघन लहीए रे ॥ स्थल दर्शन सकळना नय ग्रहे, आप रहे निज भावे रे | हितकरी जनने संजीवनी, चारो तेह चरावे रे ॥ पंथडो० [आनन्दघन चोवीशी अजितनाथ स्ववन ] [भगवती ] दर्शन जे थयां जुजवां, ते ओघ नजरने फेरे रे, भेद थिरादिक दृष्टिमां समकितदृष्टिने हेरे रे ॥ [आचारांग १-५-३] [आनंदघन चोवीशीन मिनाथजिन स्तवन ] [आठ योगदृष्टिकी सज्झाय-यशोविजयजी ] दुःखसुखरूप करमफळ जाणो, निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे ॥ [ईशावास्य उपनिषद ७ ] [आठ यंग दृष्टिकी सज्ज्ञाय-यशोविजयजी ] देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् || [आनंदघन चोवोशी-वासुपूज्य जिन स्तवन ] ८५७ पृष्ठ - पंक्ति ६१४-२ ७८८-१३ ६४१-३ ४७५-२६ ५४५-११ ७९०-१६ १६२-१४ ६७६-१९ ५८८-१० २६८-१५ ५७७-२८; ६६५-१९ ३१५-१७ ३१५-२० ३२१-३० [आप्तमीमांसा १ समंतभद्र ] ६८४-८९ ७८८-२५
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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