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________________ ५२० श्रीमद् राजचन्द्र जिनोक्त मार्गका भी ऐसा एकान्त सिद्धात नही है कि चाहे जिस उमरमे चाहे जिस मनुष्यको त्याग करना चाहिये । तथारूप सत्सग और सद्गुरुका योग होनेपर, उस आश्रयसे कोई पूर्वके संस्कारवाला अर्थात् विशेष वैराग्यवान पुरुष गृहस्थाश्रमको ग्रहण करनेसे पहले त्याग करे तो उसने योग्य किया है, ऐसा जिनसिद्धात प्राय कहता है; क्योकि अपूर्व साधनोके प्राप्त होने पर भोगादि भोगनेके विचारमे पड़ना, और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करके अपने प्राप्त आत्मसाधनको गँवाने जैसा करना, और अपनेसे जो संतति होगी वह मनुष्यदेह प्राप्त करेगी, वह देह मोक्षके साधनरूप होगी, ऐसी मनोरथ मात्र कल्पनामे पड़ना, यह मनुष्यभवकी उत्तमता दूर करके उसे पशुवत् करने जैसा है। इद्रियाँ आदि जिसकी शान्त नही हुई है, ज्ञानीपुरुषकी दृष्टिमे अभी जो त्याग करनेके योग्य नही है, ऐसे किसी मद अथवा मोहवैराग्यवान जीवको त्याग अपनाना प्रशस्त ही है, ऐसा जिनसिद्धात कुछ एकान्तरूपसे नही है। प्रथमसे ही जिसे उत्तम सस्कारयुक्त वैराग्य न हो, वह पुरुष कदाचित् परिणाममे त्यागका लक्ष्य रखकर आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करे, तो उसने एकात भूल ही की है, और त्याग ही किया होता तो उत्तम था, ऐसा भी जिनसिद्धात नही है । मात्र मोक्षसाधनका प्रसग प्राप्त होनेपर उस प्रसगको जाने नही देना चाहिये, ऐसा जिनेंद्रका उपदेश है। उत्तम सस्कारवाले पुरुप गृहस्थाश्रम अपनाये बिना त्याग करें, तो उससे मनुष्यकी वृद्धि रुक जाये, और उससे मोक्षसाधनके कारण रुक जायें, यह विचार करना अल्प दृष्टिसे योग्य दिखायी दे, परतु तथारूप त्याग-वैराग्यका योग प्राप्त होनेपर, मनुष्यदेहकी सफलता होनेके लिये, उस योगका अप्रमत्ततासे विलम्बके बिना लाभ प्राप्त करना, वह विचार तो पूर्वापर अविरुद्ध और परमार्थदृष्टिसे सिद्ध कहा जा सकता है। आयु सम्पूर्ण है और अपनेको सतति होगी तो वे मोक्षसाधन करेगी ऐसा निश्चय करके, संतति होगी ही ऐसा मानकर, पुनः ऐसा ही त्याग प्रकाशित होगा, ऐसे भविष्यको कल्पना करके आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करनेको कौनसा विचारवान एकान्तसे योग्य समझे ? अपने वैराग्यमे मंदता न हा, और ज्ञानीपुरुष जिसे त्याग करने योग्य समझते हो, उसे अन्य मनोरथ मात्र कारणोंके अथवा अनिश्चित कारणो के विचारको छोडकर निश्चित और प्राप्त उत्तम कारणोका आश्रय करना, यही उत्तम है, और यही मनुष्यभवकी सार्थकता है, बाकी वृद्धि आदिकी तो कल्पना है। सच्चे मोक्षमार्गका नाश कर मात्र मनुष्यकी वृद्धि करनेकी कल्पना करने जैसा करें तो हो सके। इत्यादि अनेक कारणोसे परमार्थदृष्टिसे जो उपदेश दिया है, वही योग्य दिखायी देता है। ऐसे प्रश्नोत्तरमे विशेषत. उपयोगको प्रेरित करना कठिन पडता है। तो भी सक्षेपमे जो कुछ लिखना बन पाया, उसे उदोरणावत् करके लिखा है। जहाँ तक हो सके वहाँ तक ज्ञानीपुरुषके वचनोको लौकिक आशयमे न लेना, अथवा अलौकिक दृष्टिसे विचारना योग्य है, और जहाँ तक हो सके वहाँ तक लौकिक प्रश्नोत्तरमे भी विशेष उपकारके विना पडना योग्य नही है । वैसे प्रसगोसे कई बार परमार्थदृष्टिको क्षुब्ध करने जैसा परिणाम आता है। बडके बड़वट्ट या पीपलके गोदेका रक्षण भी कुछ उनके वशकी वृद्धि करनेके हेतुसे उन्हे अभक्ष्य कहा है, ऐसा समझना योग्य नही है । उनमे कोमलता होती है, जिससे उनमे अनतकायका सभव है, तथा उनके बदले दूसरी अनेक वस्तुओसे निष्पापतासे रहा जा सकता है, फिर भी उन्हीको अगीकार करनेकी इच्छा रखना यह वृत्तिकी अति तुच्छता है; इसलिये उन्हे अभक्ष्य कहा है, यह यथार्थ लगने योग्य है। पानीकी बूंदमे असंख्यात जीव हैं, यह वात सच्ची है। परन्तु उपर्युक्त बडके वड़बट्टे आदिके जो
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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