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________________ २८ वो वर्ष साधन भी, यदि जीव अपने पुरुषार्थको छिपाये विना उनमे लगाये, तभी सिद्ध होते है। अधिक क्या कहे ? इतनी सक्षिप्त बात यदि जीवमे परिणमित हो जाये तो वह सर्व व्रत, यम, नियम, जप, यात्रा, भक्ति, शास्त्रज्ञान आदि कर चुका, इसमे कुछ सशय नही है । यही विनती। आ० स्व० प्रणाम। ५३८ बंबई, कार्तिक सुदी ९, बुध, १९५१ दो पत्र प्राप्त हुए हैं। मुक्त मनसे स्पष्टीकरण किया जाये ऐसी आपकी इच्छा रहती है, उस इच्छाके कारण ही मुक्त मनसे स्पष्टीकरण नही किया जा सका, और अब भी उस-इच्छाका निरोध करनेके सिवाय आपके लिये दूसरा कोई विशेष कर्तव्य नही है। हम मुक्त मनसे स्पष्टीकरण करेंगे ऐसा जानकर इच्छाका निरोध करना योग्य नही है, परन्तु सत्पुरुषके सगके माहात्म्यको रक्षाके लिये उस इच्छाको शान्त करना योग्य है, ऐसा विचारकर शात करना योग्य है । सत्सगकी इच्छासे ही यदि ससारके प्रतिबन्धके दूर होनेकी स्थितिके सुधारको इच्छा रहती हो तो भी अभी उसे छोड़ देना योग्य है; क्योकि हमे ऐसा लगता है कि वारवार आप जो लिखते है, वह कुटुम्बमोह है, सक्लेशपरिणाम है, और असाता न सहन करनेकी किसी भी अशमे बुद्धि है, और जिस पुरुषको वह बात किसी भक्तजनने लिखी हो, तो उससे उसका रास्ता निकालनेके बदले ऐसा होता है, कि ऐसी निदानबुद्धि जब तक रहे तब तक सम्यक्त्वका रोध अवश्य रहता है, ऐसा विचारकर बहुत बार खेद हो आता है, वह लिखना आपके लिये योग्य नही है। ५३९ बबई, कार्तिक सुदी १४, सोम, १९५१ सर्व जीव आत्मरूपसे समस्वभावी है । अन्य पदार्थमे जीव यदि निजवुद्धि करे तो परिभ्रमणदशा प्राप्त करता है, और निजमे निजबुद्धि हो तो परिभ्रमणदशा दूर होती है। जिसके चित्तमे ऐसे मार्गका विचार करना आवश्यक है उसको, जिसके आत्मामे वह ज्ञान प्रकाशित हुआ है, उसकी दासानुदासरूपसे अनन्य भक्ति करना ही परम श्रेय है; और उस दासानुदास भक्तिमानकी भक्ति प्राप्त होनेपर जिसमे कोई विषमता नही आती, उस ज्ञानीको धन्य है, उतनी सर्वांशदशा जब तक प्रगट न हुई हो तब तक आत्माकी कोई गुरुरूपसे आराधना करे, वहाँ पहले उस गुरुपनेको छोड़कर उस शिष्यमे अपनी दासानुदासता करना योग्य है। । ५४० बबई, कार्तिक सुदी १४, सोम, १९५१ विषम संसाररूप बधनका छेदन करके जो पुरुष चल पड़े उन पुरुषोको अनंत प्रणाम है। आज आपका एक पत्र प्राप्त हुआ है। सदी पचमी या छठ के बाद यहाँसे विदाय होकर मेरा वहां आना होगा, ऐसा लगता है। आपने लिखा कि विवाहके काममे पहलेसे आप पधारे हो, तो कितने ही विचार हो सकें। उस सम्बन्धमे ऐसा हे कि ऐसे कार्यों मेरा चित अप्रवेशक होनेसे, और वैसे कार्योंका माहात्म्य कुछ है नही ऐसा निश्चय होनेसे मेरा पहलेसे आना कुछ वैसा उपयोगी नही है। जिससे रेवाशंकरभाईका आना ठीक समझकर वैसा किया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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