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________________ ४४२ श्रीमद् राजचन्द्र ___ कृष्णदासके चित्तकी व्यग्रता देखकर आप सबके मनमे खेद रहता है, वैसा होना स्वाभाविक है। यदि हो सके तो 'योगवासिष्ठ' ग्रथ तीसरे प्रकरणसे उन्हे पढावे अथवा श्रवण करावे, और प्रवृत्तिक्षेत्रसे जैसे अवकाश मिले तथा सत्संग हो वैसे करें। दिनभरमे वैसा अधिक समय अवकाश लिया जा सके, उतना ध्यान रखना योग्य है। . सव मुमुक्षुभाइयोकी समागमको इच्छा है ऐसा लिखा, उसका विचार करूँगा । मार्गशीर्ष मासके पिछले भागमे या पौष मासके आरभमे बहुत करके वैसा योग होना सम्भव है। कृष्णदासको चित्तके विक्षेपकी निवृत्ति करना योग्य है। क्योकि मुमुक्षुजीवको अर्थात् विचारवान जीवको इस ससारमे अज्ञानके सिवाय और कोई भय नही होता। एक अज्ञानकी निवृत्ति करनेकी जो इच्छा है, उसके सिवाय विचारवान जीवको दूसरी इच्छा नही होती, और पूर्वकर्मके योगसे वैसा कोई उदय हो, तो भी विचारवानके चित्तमे ससार कारागृह है, समस्त लोक दु खसे आर्त है, भयाकुल है, रागद्वेषके प्राप्त फलसे जलता है, ऐसा विचार निश्चयरूप ही रहता है, और ज्ञानप्राप्तिमे कुछ अन्तराय है, इसलिये यह कारागृहरूप ससार मुझे भयका हेतु है और लोकका प्रसग करना योग्य नहीं है, यही एक भय विचारवानको होना योग्य है। ___ महात्मा श्री तीर्थकरने निग्रंथको प्राप्तपरिषह सहन करनेकी वारवार सूचना दी है । उस परिषहके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए अज्ञानपरिषह और दर्शनपरिषह ऐसे दो परिषहोका प्रतिपादन किया है, कि किसी उदययोगकी प्रबलता हो और सत्सग एव सत्पुरुषका योग होनेपर भी जीवकी अज्ञानके कारणाको दूर करनेकी हिम्मत न चल सकती हो, आकुलता आ जाती हो, तो भी धैर्य रखना, सत्सग एवं सत्पुरुषके योगका विशेष विशेष आराधन करना, तो अनुक्रमसे अज्ञानकी निवृत्ति होगी, क्योकि निश्चय जो उपाय है, और जीवको निवृत्त होनेकी बुद्धि है, तो फिर वह अज्ञान निराधार हो जानेपर किस तरह टिक सकता है ? एक मात्र पूर्वकर्मके योगके सिवाय वहाँ उसे कोई आधार नही है। वह तो जिस जीवको सत्सग एव सत्पुरुपका योग हुआ हे ओर पूर्वकर्मनिवृत्तिका प्रयोजन है, उसका अज्ञान क्रमशः दूर होना ही योग्य है, ऐसा विचारकर वह मुमुक्षुजीव उस अज्ञानजन्य आकुलता-व्याकुलताको धैर्यसे सहन करे, इस तरह परमार्थ कहकर परिपह कहा है। यहाँ हमने उन दोनो परिषहोका स्वरूप संक्षेपमे लिखा है। ऐसा परिषहका स्वरूप जानकर, सत्संग एव सत्पुरुषके योगसे, जो अज्ञानसे आकुलता होती है वह निवृत्त होगी, ऐसा निश्चय रखकर, यथाउदय जानकर, धैर्य रखनेका भगवान तीर्थकरने कहा है; परन्तु वह धैर्य ऐसे अर्थमे नही कहा है, कि सत्सग,एवं सत्पुरुपका योग होनेपर प्रमाद हेतुसे विलंब करना, वह धैर्य है और,उदय है, यह बात भी विचारवान जीवको स्मृतिमे रखना योग्य है। श्री तीर्थंकरादिने वार-बार जीवोंको उपदेश दिया है, परन्तु जीव दिङ्मूढ रहना चाहता है, वहां उपाय नही चल सकता । पुनः पुन. ठोक-ठोककर कहा है कि एक यह जीव समझ ले.तो सहज मोक्ष है, नही तो अनत उपायोंसे भी नही है। और यह समझना भी कुछ विकट नही है, क्योकि जीवका, जो सहज स्वरूप है वही मात्र समझना है, और वह कुछ दूसरेके स्वरूपकी बात नही है कि कदाचित् वह छिपा ले या न बताये कि जिससे समझमे न आवें। अपनेसे आप गुप्त रहना किस तरह हो सकता है ? परन्तु स्वप्नदशामे जैसे न होने योग्य ऐसी अपनी मृत्युको भी जीव देखता है, वैसे ही अज्ञानदशारूप स्वप्नरूप योगसे यह जीव अपनेको, जो अपने नही हैं ऐसे दूसरे द्रव्योमे निजरूपसे मानता है, और यही मान्यता ससार हैं, यही अज्ञान है, नरकादि गतिका हेतु यही है, यही जन्म है, मरण है, और यही देह है, देहका विकार है, यही पुत्र है, यही पिता, यही शत्रु, यही मित्रादि भावकल्पनाका हेतु है; और जहाँ उसकी निवृत्ति हुई वहाँ सहज मोक्ष है; और इसी निवृत्तिके लिये सत्सग, सत्पुरुष आदि- साधन कहे हैं, और वे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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