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________________ ५८८ श्रीमद् राजचन्द्र सर्व कर्मकलकसे रहित होनेसे एक शुद्ध आत्मस्वभावरूप मोक्षमे परम अव्याबाध सुखके अनुभवसमुद्रमे स्थित हा जाता है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे जैसे ज्ञान सम्यकस्वभावको प्राप्त होता है, यह सम्यग्दर्शनका परम उपकार है, वैसे ही सम्यग्दर्शन क्रमसे शुद्ध होता हुआ पूर्ण स्थिर स्वभाव सम्यकचारित्रको प्राप्त हो इसके लिये सम्यग्ज्ञानके वलकी उसे सच्ची आवश्यकता है। उस सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय वीतरागश्रुत और उस श्रुततत्त्वोपदेष्टा महात्मा है। वीतरागश्रुतके परम रहस्यको प्राप्त हुए असग तथा परम करुणाशील महात्माका योग प्राप्त होना अतिशय कठिन है। महद्भाग्योदयके योगसे ही वह योग प्राप्त होता है इसमे सशय नही है । कहा है कि - तहा रुवाणं समणाणंउन श्रमण महात्माओके प्रवृत्तिलक्षण परमपुरुषने इस प्रकार कहे हैं : उन महात्मामोके प्रवृत्तिलक्षणोसे अभ्यतरदशाके चिह्न निर्णीत किये जा सकते हैं, यद्यपि प्रवृत्तिलक्षणोकी अपेक्षा अभ्यतरदशा सवधी निश्चय अन्य भी निकलता है। किसी एक शुद्ध वृत्तिमान मुमुक्षुको वैसी अभ्यतरदशाकी परीक्षा आती है। ऐसे महात्माओंके समागम और विनयकी क्या जरूरत है ? चाहे जैसा भी पुरुष हो, परन्तु जो अच्छी तरह शास्त्र पढकर सुना दे ऐसे पूरुषसे जीव कल्याणका यथार्थ मार्ग क्यो प्राप्त न कर सके ? ऐसी आशकाका समाधान किया जाता है - ऐसे महात्मा पुरुषोका योग अतीव दुर्लभ है। अच्छे देशकालमे भी ऐसे महात्माओका योग दुर्लभ है, तो ऐसे दुःखमुख्य कालमे वैसा हो इसमे कुछ कहना ही नही रहता । कहा है कि - यद्यपि वैसे महात्मा पुरुषोका क्वचित् योग मिलता है, तो भी शुद्ध वृत्तिमान मुमुक्षु हो तो वह उनके मुहर्त्तमात्रके समागममे अपूर्व गुणको प्राप्त कर सकता है। जिन महापुरुषोके वचन-प्रतापसे चक्रवती मुहूर्त्तमात्रमे अपना राजपाट छोडकर भयकर वनमे तपश्चर्या करनेके लिये चल निकलते थे, उन महात्मा पुरुषोके योगसे अपूर्व गुण क्यो प्राप्त न हो ? __ अच्छे देशकालमे भी क्वचित् वैसे महात्माओका योग हो जाता है, क्योकि वे अप्रतिबद्ध विहारी होते हैं । तब ऐसे पुरुषोका नित्य सग रहना किस तरह हो सकता है कि जिससे ममुक्षुजीव सब दुखोका क्षय करनेके अनन्य कारणोकी पूर्णरूपसे उपासना कर सके ? भगवान जिनने उसके मार्गका अवलोकन इस तरह किया है - नित्य उनके समागममे आज्ञाधीन रहकर प्रवृत्ति करनी चाहिये, और इसके लिये बाह्याभ्यतर परिग्रह आदिका त्याग करना ही योग्य है। जो सर्वथा वेसा त्याग करनेके लिये समर्थ नही है, उन्हे इस प्रकार देशत्यागपूर्वक प्रवृत्ति करना योग्य है । उसके स्वरूपका इस तरह उपदेश किया है :
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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