SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ ऐसे इस प्रसगके वेदन करनेका उन्हे भी प्रकाशन उन्हे हो तो सत्सग सफल हो ऐसे श्रीमद राजचन्द्र अवसर मिला है । वैराग्यवान जीव है । यदि प्रज्ञाका विशेष योग्य जीव हैं । " वारवार तग आ जाते हैं, तथापि प्रारब्धयोगसे उपाधिसे दूर नही हो सकते । यही विज्ञापना । सविस्तर पत्र लिखियेगा | ४८६ तीर्थंकरदेव प्रमादको कर्म कहते हैं, और अप्रमादको उससे स्वरूप कहते है । ऐसे भेदके प्रकारसे अज्ञानी और ज्ञानीका स्वरूप है, (कहा है ।) आत्मस्वरूपसे प्रणाम । 72 बंबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५० दूसरा अर्थात् अंकर्मरूप ऐसा आत्म [सूयगडागसूत्र वीर्य अध्ययन] ' जिस कुलमे जन्म हुआ है, और जिसके सहवासमे जीव रहा है, उसमे यह अज्ञानी जीव ममता करता है, और उसीमे निमग्न रहा करता है । J [सूयगडाग - प्रथमाध्ययन] २ जो ज्ञानीपुरुष भूतकालमे हो गये हैं, और जो ज्ञानीपुरुष भावीकालमे होगे, उन सब पुरुषोने ‘शाति’ (समस्त विभावपरिणामसे थकना, निवृत्त होना) को सर्व धर्मोका आधार कहा है । जैसे भूतमात्रको पृथ्वी आधारभूत है, अर्थात् प्राणीमात्र पृथ्वीके आधारसे स्थितिवाले है, उसका आधार उन्हे प्रथम होना योग्य है; वैसे सर्व प्रकारके कल्याणका आधार, पृथिवीकी भाँति 'शांति' को ज्ञानीपुरुषोने कहा है। [सूयगडाग]3 बबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५० ४८७ ॐ बुधवारको एक पत्र लिखेंगे, नही तो रविवारको सविस्तर पत्र लिखेंगे, ऐसा लिखा था । उसे लिखते समय चित्तमे ऐसा था कि आप मुमुक्षुओको कुछ नियम जैसी स्वस्थता होना योग्य है, और उस विषय मे कुछ लिखना सूझे तो लिखूँ, ऐसा चित्तमे आया था । लिखते हुए ऐसा हुआ कि जो कुछ लिखनेमे आता है उसे सत्युग प्रसगमे विस्तारसे कहना योग्य है, और वह कुछ फलरूप होने योग्य है । जितना सविस्तर लिखनेसे आप समझ सकें उतना लिखना अभी हो सके, ऐसा यह व्यवसाय नही है, और जो व्यवसाय है वह प्रारव्वरूप होनेसे तदनुसार प्रवृत्ति होती है, अर्थात् उसमे विशेष बलपूर्वक लिख सकना मुश्किल है । इसलिये उसे क्रमसे लिखनेका चित्त रहता है । इतनी बातका निश्चय रखना योग्य है कि ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्धकर्म भोगे विना निवृत्त नही होते, और विना भोगे निवृत्त होनेकी ज्ञानी को कोई इच्छा नही होती । ज्ञानीके सिवाय दूसरे जीवोको भी १ पाय कम्ममासु, अप्पमाय तहावर । तव्भावदेसभवावि, वाल पडियमेय वा ॥ सू० कृ० १ श्र० ८ अ० तीसरी गाथा । २ जेस्सि कुले समुप्पन्ने जेहि वा सवसे नरे । ममाइ लुप्पइ वाले, अण्णे अण्णेहि मुन्टिए । सू० कृ० १ श्रु० १ अ० चोथी गाथा । ३. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । सति तेसि पइट्ठाण, भूयाण जगती जहा ॥ सू० कृ० १ श्रु० ११ अ० ३६वी गाथा |
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy