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अवतरण
संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे । काव्यामृतरसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ॥
सिरिवीर जिणं वंदिअ कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कीरई जिएण हेउहि जेणं तो भण्णए कम्मं
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परिशिष्ट १.
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27 सुखना सिंधु श्री सहजानंदजी, जगजीवन के जगवंदजी, - शरणागतना सदा सुखकंदजी, परम स्नेही छो (!) परमानंदजी
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[हांसीमैं विषाद बसै विद्यामैं विवाद बसै, कायामैं मरन गुरु वर्तनमै हीनता, - सुचि मैं गिलानी बसैं प्रापतिमैं हानि बसे, जैमैं हारि सुंदर दसा मैं छवि छीनता, रोग बसे भोग मैं, संजोगमै वियोग बसै, गुनगँ गरब बस सेवामांहि दीनता, और जगरीति जेतीं गर्भित असाता सेती, ] सुखकी सहेली है अकेली. उदासीनता
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तास निकट हो क्यों रहे, मिथ्यातम दुःख जान 1
[पंचतंत्र ]
[प्रथम कर्मग्रन्थ-देवेन्द्रसूरि ]
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[ समयसार नाटक ]
'सुहजोगं पडुच्चं अणारंभी, असुहजोगं पडुच्चं आय़ारंभी, परारंभी, तदुभयारंभी
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[भगवतीजी ] -
-सो धम्मो जथ्य दया दट्ठ दोसा न जस्स सो देवो । सोहु-गुरुजा नाणी आरंभपरिग्गहा थिरओ | संबुझ्झहा जंतवो माणुसत्तं दट्टं भयं बालिसेणं, अलंभो । एतदुक्खे जरिए लोए, सक्कम्मणा विप्परियासुवेई ॥ निप 'चरका उदय पिछानिये, अति थिरता चित्तधार, तथी शुभाशुभ कीजिये, भावि वस्तु विचार ॥ 'हम परदेशी पंखी साधु, आ रे देशके नाहीं रे । हिंसे रहिए धम्मे अट्ठारस दोस विवज्जिए देवें । निग्ग्ये पवयणं सदृहणं होइ सम्मत्तं ॥ [नलिरीदलगतजलवत्तरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलं । ] क्षणम सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ क्षायोपशमक असंख्य क्षायक एक अनन्य
"ज्ञान रवि वैराग्य जस, हिरदे चंद समान .
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[ सूत्रकृतांग १-७-११]
. [ धीरजाख्यान १ - निष्कुलानंद ] २९२-२४
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[स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ] 7 [ ? 1
[षट् प्राभृतादि संग्रह मोक्षप्राभृत- ९०]
[मोहमुद्गर-शंकराचार्य]'
[ अध्यात्मगीता १- ६ देवचन्द्रजी ]
[स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ]
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