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________________ ३६९ २६ वा वर्ष सवमे यदि अस्पृहता हो और उद्वेग रहता हो तो वह अन्यकी अनुकम्पा या उपकार या वैसे कारणसे हो, ऐसा मुझे निश्चित लगता है। इस उद्वेगके कारण कभी आँखोमे आँसु आ जाते है, और उन सब कारणोके प्रति वर्तन करनेका मार्ग अमुक अशमे परतत्र दिखायी देता है । इसलिये समान उदासीनता आ जातो है । ज्ञानीके मार्गका विचार करते हुए ज्ञात होता है कि किसी भी प्रकारसे यह देह मूर्छापात्र नहीं है, उसके दु खसे इस आत्माको शोक करना योग्य नही है। आत्माको आत्म-अज्ञानसे शोक करनेके सिवाय दूसरा शोक करना उचित नहीं है। प्रगट यमको समीप देखते हुए भी जिसे देहमे मूर्छा नही रहती, उस पुरुपको नमस्कार है। इसी बातका चिंतन करते रहना हमे, आपको, प्रत्येकको योग्य है। देह आत्मा नहीं है, आत्मा देह नहीं हैं । घटादिको देखनेवाला जैसे घटादिसे भिन्न है, वैसे देहको देखनेवाला, जाननेवाला आत्मा देहसे भिन्न है, अर्थात् देह नही है। विचार करते हुए यह वात प्रगट अनुभवसिद्ध होती है, तो फिर इस भिन्न देहके स्वाभाविक क्षयवृद्धि-रूपादि परिणाम देखकर हर्ष-शोकवान होना किसी प्रकारसे सगत नही है, और हमे, आपको वह निर्धार करना, रखना योग्य है, और यह ज्ञानीके मार्गकी मुख्य ध्वनि है। व्यापारमें कोई यात्रिक व्यापार सूझे तो वर्तमानमें कुछ लाभ होना संभव है। ___४२६ वबई, मगसिर वदी १३, शनि, १९४९ भावसार खुशाल रायजीने केवल पांच मिनटकी मांदगीमें देह छोडा है। ससारमें उदासीन रहनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है। बंबई, माघ सुदी ९, गुरु, १९४९ ४२७ आप सब मुमुक्षुजनके प्रति नम्रतासे यथायोग्य प्राप्त हो । निरंतर ज्ञानोपुरुषकी सेवाके इच्छावान हम है, तथापि इस दुषमकालमें तो उसकी प्राप्ति परम दुषम देखते हैं, और इसलिये ज्ञानीपुरुषके आश्रयमे स्थिर बुद्धि है जिनकी, ऐसे मुमुक्षुजनमें सत्सगपूर्वक भक्तिभावसे रहनेको प्राप्तिको महा भाग्यरूप मानते है, तथापि अभी तो उससे विपरीत प्रारब्धोदय रहता है । सत्सगका लक्ष्य हमारे आत्मामे रहता है, तथापि उदयाधीन स्थिति है, और वह अभी ऐसे परिणाममे रहती है कि आप मुमुक्षुजनके पत्रकी पहुँच मात्र विलबसे दी जाती है। चाहे जैसी स्थितिमे भी अपराधयोग्य परिणाम नही है। ४२८ . बवई, माघ वदी ४, १९४९ शुभेच्छासम्पन्न मुमुक्षुजन श्री अंबालाल इत्यादि, दो पत्र पहुँचे हैं। यहां समाधि परिणाम है । तथापि उपाधिका प्रसग विशेप रहता है। और वैसा करनेमे उदासीनता होनेपर भी उदययोग होनेसे निष्क्लेश परिणामसे प्रवृत्ति करना योग्य है। प्रमाद कम होनेके लिये किसी सद्ग्रथको पढते रहना योग्य है। ४२९ ____ ववई, माघ वदी ११, रवि, १९४९ कोई मनुष्य अपने विषयमे कुछ बताये तव उसे यथासम्भव गम्भीर मनसे सुनते रहना इतना मत्य काम है । वह वात ठोक है या नहीं यह जाननेसे पहिले कोई हर्ष-खेद जैसा नहीं होता। मेरी चित्तवत्तिके विषयमे कभी कभी लिखा जाता है, उसका अर्थ परमार्थसम्बन्धी लेना योग्य है, और यह लिखनेका अर्थ व्यवहारमे कुछ अशुभ परिणामवाला दिखाना योग्य नहीं है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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