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________________ ४८८ श्रीमद राजचन्द्र ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मका अमुक क्षयोपशम होनेसे इद्रियलब्धि उत्पन्न होती है। वह इद्रियलब्धि सामान्यतः पाँच प्रकारको कही जा सकती है। स्पर्शेद्रियसे श्रवणेद्रिय पर्यन्त सामान्यतः मनुष्यप्राणीको पाँच इद्रियोको लब्धिका क्षयोपशम होता है। उस क्षयोपशमकी शक्तिकी अमुक व्याहति होने तक जान-देख सकती है। देखना यह चक्षुरिंद्रियका गुण है, तथापि अधकारसे अथवा वस्तु अमुक दूर होनेसे उसे पदार्थ देखनेमे नही आ सकता; क्योकि चक्षुरिंद्रियकी क्षयोपशमलब्धि उस हद तक रुक जाती है, अर्थात् क्षयोपशमकी सामान्यत. इतनी शक्ति है । दिनमे भी विशेष अधकार हो अथवा कोई वस्तु बहुत अधेरेमे पड़ी हो अथवा अमुक हदसे दूर हो तो चक्षुसे दिखायी नही दे सकती । इसी तरह दूसरी इद्रियोकी लब्धिसम्बन्धी क्षयोपशमशक्ति तक उसके विषयमे ज्ञानदर्शनको प्रवृत्ति है। अमुक व्याघात तक वह स्पर्श कर सकती है, अथवा सूंघ सकती है, स्वाद पहचान सकती है, अथवा सुन सकती है। दूसरे प्रश्नमे ऐसा बताया है कि 'आत्माके असंख्यात प्रदेश सारे शरीरमे व्यापक होनेपर भी, आँखके बीचके भागकी पुतलीसे ही देखा जा सकता है, इसी तरह सारे शरीरमे असंख्यात प्रदेश व्यापक होनेपर भी एक छोटेसे कानसे सुना जा सकता है, दूसरे स्थानसे सुना नही जा सकता । अमुक स्थानसे गन्धकी परीक्षा होती है, अमुक स्थानसे रसकी परीक्षा होती है, जैसे कि शक्करका स्वाद हाथ-पैर नही जानते, परन्तु जिह्वा जानली है । आत्मा सारे शरीरमे समानरूपसे व्यापक होनेपर भी अमुक भागसे ही ज्ञान होता है, इसका कारण क्या होगा? इसका संक्षेपमे उत्तर : जीवको ज्ञान, दर्शन क्षायिकभावसे प्रगट हए हों तो सर्व प्रदेशसे तथाप्रकारकी उसे निरावरणता होनेसे एक समयमे सर्व प्रकारसे सर्व भावकी ज्ञायकता होती है, परन्तु जहाँ क्षयोपशम भावसे ज्ञानदर्शन रहते हैं, वहाँ भिन्न भिन्न प्रकारसे अमुक मर्यादामे ज्ञायकता होती है। जिस जीवको अत्यन्त अल्प ज्ञानदर्शनकी क्षयोपशमशक्ति रहती है, उस जीवको अक्षरके अनंतवें भाग जितनी ज्ञायकता होती है। उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्शेद्रियकी लब्धि कुछ विशेष व्यक्त (प्रगट) होती है, उससे विशेष क्षयोपशमसे स्पर्श और रसेंद्रियकी लब्धि उत्पन्न होती है, इस तरह विशेपतासे उत्तरोत्तर स्पर्श, रस, गध और वर्ण तथा शब्दको ग्रहण करने योग्य पंचेन्द्रिय सम्बन्धी क्षयोपशम होता है । तथापि क्षयोपशमदशामे गुणकी समविषमता होनेसे सर्वाङ्गसे पचेन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान और दर्शन नही होते, क्योकि शक्तिका वैसा तारतम्य ( सत्त्व ) नही है कि वह पांचो विषय सर्वाङ्गसे ग्रहण करे। यद्यपि अवधि आदि ज्ञानमे वैसा होता है, परन्तु यहाँ तो सामान्य क्षयोपशम, और वह भी इन्द्रिय सापेक्ष क्षयोपशमका प्रसग है। अमुक नियत प्रदेशमे ही उस इन्द्रियलब्धिका परिणाम होता है, इसका हेतु क्षयोपशम तथा प्राप्त हुई योनिका सम्बन्ध है कि नियत प्रदेशमे ( अमुक मर्यादा-भागमे ) अमुक अमुक विषयका जीवको ग्रहण हो। तीसरे प्रश्नमे ऐसा बताया है कि, 'शरीरके अमुक भागमे पीडा होती है, तब जीव वही संलग्न हो जाता है, इससे जिस भागमे पीडा है उस भागको पीडाका वेदन करनेके लिये समस्त प्रदेश उस तरफ खिंच आते होगे ? जगतमे कहावत है कि जहां पीड़ा हो, वही जीव सलग्न रहता है।' इसका सक्षेपमे उत्तर - - उस वेदनाके वेदन करनेमे बहुतसे प्रसगोमे विशेष उपयोग रुकता है और दूसरे प्रदेशोका उस ओर बहुतसे प्रसगोमे सहज आकर्पण भी होता है। किसी प्रसंगमे वेदनाका बाहुल्य हो तो सर्व प्रदेश मूर्छागत स्थिति भी प्राप्त करते है, और किसी प्रसगमे वेदना या भयके वाहुल्यके कारण सर्व प्रदेश अर्थात् आत्माकी दशमद्वार आदि' एक स्थानमे स्थिति होती है। ऐसा होनेका हेतु भी अव्यावाध नामके जीवस्वभावके तथाप्रकारसे परिणामी न होनेसे, उस वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी समविषमता होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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