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________________ २८ वाँ वर्ष ४५७ आत्माका जो अतापार (अंतरपरिणामकी धारा) है वह, बंध तथा मोक्षको (कमसे आत्माका बंधना और उससे आत्माका छूटना) व्यवस्थाका हेतु है, मात्र शरीरचेष्टा बध-मोक्षकी व्यवस्थाका हेतु नही है। विशेष रोगादिके योगसे ज्ञानीपुरुषकी देहमे भी निर्बलता, मदता, म्लानता; कप, स्वेद, मूर्छा, बाह्य विभ्रमादि दिखायी देते हैं, तथापि जितनो ज्ञान द्वारा, बोध द्वारा, वैराग्य द्वारा आत्माकी निर्मलता हुई है, उतनी निर्मलता द्वारा ज्ञानी उस रोगका अतरपरिणामसे वेदन करते हैं और वेदन करते हुए कदाचित् बाह्य स्थिति उन्मत्त देखनेमे आये तो भी अतरपरिणामके अनुसार कर्मबंध अथवा निवृत्ति होती है । आत्मा जहाँ अत्यन्त शुद्ध निजपर्यायका सहज स्वभावसे सेवन करे वहाँ- (अपूर्ण ) ५६८ बबई, फागुन, १९५१ आत्मस्वरूपका निर्णय होनेमे अनादिसे जीवकी भूल होती आयी है, जिससे अब हो, इसमे आश्चर्य नही लगता। - सर्व'क्लेशसे और सर्व दुःखसे मुक्त होनेका, आत्मज्ञानके सिवाय दूसरा कोई उपाय नही है । सद्विचारके बिना आत्मज्ञान नही होता, और असत्सग-प्रसगसे जीवका विचारबल नही चलता, इसमे किचित्मात्र सशय नहीं है। । आत्मपरिणामकी स्वस्थताको श्री तीर्थकर 'समाधि' कहते हैं। आत्मपरिणामकी अस्वस्थताको श्री तीर्थकर 'असमाधि' कहते हैं। `आत्मपरिणामकी सहज स्वरूपसे परिणति होना उसे श्री तीर्थकर 'धर्म' कहते हैं । आत्मपरिणामकी कुछ भी चपल परिणति होना उसे श्री तीर्थंकर 'कर्म' कहते हैं। श्री जिन तीर्थकरने जैसा बध एव मोक्षका निर्णय कहा है, वैसा निर्णय वेदातादि दर्शनमे दृष्टि गोचर नही होता, और श्री जिनमे जैसा यथार्थवक्तृत्व देखनेमे आता है वैसा यथार्थवक्तृत्व दूसरेमे देखनेमे नही आता। आत्माके अतर्व्यापार (शुभाशुभ परिणामधारा) के अनुसार बध-मोक्षकी व्यवस्था है, वह शारीरिक चेष्टाके अनुसार नही है । पूर्वकालमे उत्पन्न किये हुए वेदनीय कर्मके उदयके अनुसार रोगादि उत्पन्न होते हैं, और तदनुसार निबल, मद, म्लान, उष्ण, शीत आदि शरीरचेष्टा होती है। विशेष रोगके उदयसे अथवा शारीरिक मद बलसे ज्ञानीका शरीर कपित हो, निर्बल हो, म्लान हो, मद हो, रौद्र लगे, उसे भ्रमादिका उदय भी रहे; तथापि जिस प्रकारसे जीवमे बोध एव वैराग्यकी वासना हुई होती है उस प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस प्रसगमे प्रायः वेदन करता है। किसी भी जीवको अविनाशी देहकी प्राप्ति हुई हो, ऐसा देखा नही, जाना नही तथा सम्भव नही, और मृत्युका आना निश्चित है, ऐसा प्रत्यक्ष निःसशय अनुभव है । ऐसा होनेपर भी यह जीव उस बातको वारवार भूल जाता है, यह बड़ा आश्चर्य है। जिस सर्वज्ञ वीतरागमे अनन्त सिद्धियां प्रगट हुई थी उस वीतरागने भी इस देहको अनित्यभावी देखा है, तो फिर अन्य जीव किस प्रयोगसे देहको नित्य बना सकेंगे? श्री जिनेंद्रका ऐसा अभिप्राय है कि प्रत्येक द्रव्य अनत पर्यायी है। जीवके अनत पर्याय हैं और परमाणुके भी अनंत पर्याय है। जीव चेतन होनेसे उसके पर्याय भी चेतन हैं, और परमाणु अचेतन होनेसे उसके पर्याय भी अचेतन है। जीवके पर्याय अचेतन नही है और परमाणुके पर्याय सचेतन नही है, ऐसा श्री जिनेंद्रने निश्चय किया है तथा वही योग्य है, क्योकि प्रत्यक्ष पदार्थक स्वरूपका भी विचार करते हुए वैसा प्रतीत होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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