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________________ १०८ श्रीमद् राजचन्द्र होना मभव है। इसलिये जब तक सर्वथा निग्रंथ बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग, अल्पारंभका त्याग यह सब नहीं हुआ तब तक मैं अपनेको सर्वथा सुखी नही मानता। अब आपको तत्त्वदृष्टिसे विचार करनेपर मालूम होगा कि लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र या कुटुम्बसे मुख नही है, और इसे यदि सुख मानूं तो जब मेरी स्थिति पतित हुई थी तब यह सुख कहाँ गया था ? जिसका त्रियोग है, जो क्षणभगुर है और जिसमे एकत्व या अव्याबाधत्व नही है वह मुख सम्पूर्ण नही है । इसलिये मै अपनेको सुखी नही कह सकता | मैं बहुत विचार विचारकर व्यापार कारोबार करता था, तो भी मुझे आरम्भोपाधि, अनीति और लेश भी कपटका सेवन करना नही पड़ा, ऐसा तो है हो नही। अनेक प्रकारके आरम्भ और कपटका मुझे सेवन करना पड़ा था। आप यदि मानते हो कि देवोपासनासे लक्ष्मी प्राप्त करना, तो वह यदि पुण्य न हो तो कदापि मिलनेवाली नही है। पुण्यसे लक्ष्मी प्राप्त करके महारभ, कपट और मान इत्यादि बढाना ये महापापके कारण है, पाप नरकमे डालता है। पापसे आत्मा, प्राम की हुई महान मनुष्यदेहको व्यर्थ गवॉ देता है। एक तो मानो पुण्यको खा जाना, और फिर पापका वध करना, लक्ष्मीकी और उसके द्वारा सारे ससारको उपाधि भोगना, यह बात विवेकी आत्माको मान्य नही होगी ऐसा मै मानता हूँ।, मैंने जिस कारणसे लक्ष्मीका उपार्जन किया था, वह कारण मैंने पहले आपको बताया था । जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करें। आप विद्वान है, मैं विद्वानको चाहता हूँ। आपकी अभिलाषा हो तो धर्मध्यानमे प्रसक्त होकर सहकुटुम्ब यहाँ भले रहे । आपकी आजीविकाकी सरल योजना जैसे कहे वैसे मैं रुचिपूर्वक करा दूं। यहाँ शास्त्राध्ययन और सद्वस्तुका उपदेश करें। मिथ्यारभोपाधिकी लोलुपतामे, मै समझता हूँ कि न पडे, फिर आपकी जैसी इच्छा। पंडित-आपने अपने अनुभवकी बहुत मनन करने जैसी आख्यायिका कही। आप अवश्य कोई महात्मा है, पुण्यानुवधी पुण्यवान जीव हैं, विवेकी है, आपकी शक्ति अद्भुत है । मैं दरिद्रतासे तग आकर जो इच्छा रखता था वह एकातिक थी। ऐसे सर्व प्रकारके विवेकी विचार मैने किये नही थे। ऐसा अनुभव, ऐसो विवेकशक्ति, मै चाहे जैसा विद्वान हूँ फिर भी मुझमे है ही नही। यह मै सत्य ही कहता हूँ। आपने मेरे लिये जो योजना बताई है उसके लिये आपका बहुत उपकार मानता हूँ, और नम्रतापूर्वक उसे अगीकार करनेके लिये मैं हर्ष प्रकट करता हूँ। मै उपाधिको नही चाहता। लक्ष्मीका फदा उपाधि ही देता है । आपका अनुभवसिद्ध कथन मुझे बहुत अच्छा लगा है। ससार जलता ही है, इसमे सुख नही है। आपने निरुपाधिक मुनिसुखकी प्रशसा की वह सत्य है । वह सन्मार्ग परिणाममे सर्वोपाधि, आधि, व्याधि और सर्व अज्ञानभावसे रहित ऐसे शाश्वत मोक्षका हेतु है। शिक्षापाठ ६६ सुखसंबंधी विचार-भाग ६ धनाढय-आपको मेरी बात अच्छी लगी इससे मुझे निरभिमानपूर्वक आनन्द होता है ! आपके लिये मैं योग्य योजना करूंगा। मै अपने सामान्य विचार कथानुरूप यहां कहनेकी आज्ञा चाहता हूँ। जो केवल लक्ष्मीको उपार्जन करनेमे कपट, लोभ और मायामे उलझे पड़े है वे बहुत दुखी है। वे उसका पूरा या अधूरा उपयोग नही कर सकते, मात्र उपाधि ही भोगते है । वे असख्यात पाप करते हैं। उन्हे काल अचानक उठा ले जाता है । अधोगतिको पाकर वे जीव अनत ससारको वृद्धि करते हैं। प्राप्त मनुष्यदेहको वे निर्मूल्य कर डालते है, जिससे वे निरनर दुःखी ही है। जिसने अपनी आजीविका जितने ही साधन अल्पारभसे रखे है, गुद्ध एकपत्नीनत सतोष परात्माको रक्षा, यम, नियम, परोपकार, अल्पराग, अल्प द्रव्यमाया और सत्य तथा शास्त्राप्ययन रखे है, जो मन्पुरुषोकी सेवा करता है, जिसने निग्रंथताका मनोरथ रखा है, जो बहुत प्रकारसे जहार त्रिरत जैसा है, जिसके वैराग्य और विवेक उत्कृष्ट है, वह पवित्रतामे सुखपूर्वक काल निर्गमन करता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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