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________________ ३७२ श्रीमद राजचन्द्र लिये निवृत्ति क्षेत्र वैसा योग प्राप्त होना, यह किसी महान पुण्यका योग है, और वैसा पुण्ययोग प्राय इस जगतमे अनेक प्रकारके अन्तरायवाला दिखायो देता है । इसलिये हम समीपमे है, ऐसा वारवार याद करके जिसमे इस ससारकी उदासीनता कही हो उसे अभी पढ़ें, विचारें । आत्मारूपसे केवल आत्मा रहे, ऐसा जो चिन्तन रखना वह लक्ष्य है, शास्त्रके परमार्थरूप है । इस आत्माको पूर्वकालमे अनतकाल व्यतीत करनेपर भी नही जाना, इससे ऐसा लगता है कि उसे जाननेका कार्य सबसे विकट है, अथवा तो उसे जाननेके तथारूप योग परम दुर्लभ है। जीव अनतकालसे ऐसा समझा करता है कि मैं अमुकको जानता हूँ, अमुकको नही जानता, ऐसा नही है, ऐसा होनेपर भी जिस रूपसे स्वय है उस रूपका निरन्तर विस्मरण चला आता है, यह बात बहुत - बहुत प्रकारसे विचारणीय है, और उसका उपाय भी बहुत प्रकारसे विचार करने योग्य है । ४३३ बबई, फागुन सुदी १४, १९४९ హ श्री कृष्णादिके सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रश्नके बारेमे आपका पत्र मिला है । तथा उसके अगले दिनके यहाँके पत्रोसे आपको स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, उस सम्बन्धो आपका पत्र मिला है । यथोचित अवलोकनसे उन पत्रो द्वारा श्री कृष्णादिके प्रश्नोका आपको स्पष्टीकरण होगा, ऐसा सम्भव है । - जिस कालमे परमार्थधर्मंकी प्राप्ति के साधन प्राप्त होना अत्यन्त दुषम हो उस कालको तीर्थंकरदेवने दुषम कहा है, . और इस कालमे यह बात स्पष्ट दिखायी देतो है । सुगमसे सुगम जो कल्याणका उपाय है, वह जीवको इस कालमे प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है । मुमुक्षुता, सरलता, निवृत्ति, सत्सगादि साधनको इस कालमे परम दुर्लभ जानकर, पूर्व पुरुषोने इस कालको हुँडा-अवसर्पिणीकाल कहा है, और यह बात भी स्पष्ट है | प्रथमके तीन साधनोका सयोग तो क्वचित् भी प्राप्त होना दूसरे अमुक कालमे सुगम था, परन्तु सत्संग तो सर्वं कालमे दुर्लभ हो दीखता है, तो फिर इस कालमे सत्संग सुलभ कहाँसे हो ? प्रथमके तीन साधन किसी तरह इस कालमे जीव प्राप्त करे तो भी धन्य है । कालसम्बन्धी तीर्थंकरवाणीको सत्य करनेके लिये 'ऐसा' उदय हमे रहता है, और वह समाधिरूपसे वेदन करने योग्य है । आत्मस्वरूप | बंबई, फागुन वदी, ९, शनि, १९४९ ४३४ ॐ भक्तिपूर्वक प्रणाम पहुँचे । यहाँ उपाधियोग है । बहुत करके कल कुछ लिखा जा सकेगा तो लिखूँगा । यही विनती । अत्यन्त भक्ति ४३५ बबई, फागुन वदो ३०, १९४९ 'मणिरत्नमाला' तथा 'योगकल्पद्रुम' पढनेके लिये इसके साथ भेजे है। जो कुछ बाँधे हुए कर्म है, उन्हे भोगे विना निरुपायता है । चिन्तारहित परिणामसे जो कुछ उदयमे आये उसे वेदन करना, ऐसा श्री तीर्थंकरादि ज्ञानियोका उपदेश है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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