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________________ १९ वह दशा किस लिये आवृत हुई ? वही परमात्मा है २० 'कोई ब्रह्मरसना भोगी ।" २१ परिग्रह मर्यादा २२ चेतन और चैतन्य २३ चक्षु और मन अप्राप्यकारी, - चेतनका बाह्य अगमन १४ समय-समयमे अनत सयमपरिणाम, योगदश में आत्माका सकोच - विकास, २५ ध्यान २६ पुरुषाकार चिदानंदघनका ध्यान करें, चमत्कारका धाम २७ विश्व, जीव, परमाणु और कर्मसबध अनादि ३४ छ पद ३५ आत्मा नित्यत्व आदि सम्बन्धी छ दर्शनकी मान्यताका कोष्ठक ३६ बुद्धि, आत्मा, विश्व और परमात्माके विषयमें जिन, वेदात आदिके कथन ३७ महावीरस्वामीके पुरुषार्थसे वोघ, अपनी कल्पनासे वर्तन करनेसे भववृद्धि ३८ सर्वसग महास्रव, मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति, वैश्यवेष और निग्रंथभाव, विभावयोगका विचार, ज्ञानका तारतम्य और उदयवल, हतपुण्य लोगोने भरत - क्षेत्रको घेरा है ३९ व्यवहारका विस्तार और निवृत्ति, उदय रूप दोष [ ५६ ] ८१५ २८ आत्मभावना करनेका क्रम ८१५ ३० प्राण, वाणी, रसमे ८१५ ३१ जैन सिद्धात ग्रथकी रचनाका प्रकार ८१५ ३२ वन्य रे दिवस ( काव्य ) ८१६ ३३ बघ और मोक्ष ४० चित्तकी शाति के लिये समाधान ४१ जीवनकाल भोगनेका विचार ४२ तत्त्वज्ञानी अपनी देहमें भी ममत्त्व नही करते ४३ काम आदिका सम ८१२ ८१३ ८१३ ८१३ ८१३ ८१४ ८१४ ८१४ ८१७ ८१७ ८१८ ८१८ ८१८ ८१८ ८२० ८२० ८२० ८२० ४४ व्यवसायसे निवृत्त हो, प्रारव्यसे सहज निवृत्ति ४५ सग या अश सग निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा, निवृत्ति ही प्रशस्त ५६ प्रत्याख्यान ४७ क्षायोपशमिक ज्ञान ४८ 'जेम निर्मलतारे जिनवीर - प्रकाशित धर्म ४९ वीतरागदर्शनके निर्धारित ग्रन्थका विषय ५० जैन और वेदात पद्धतिके एकीकरके लिये विचारित विषय वाणी-कायासयम ५६ जीव आदि द्रव्यसम्बन्ची ५७ हे योग ५८ एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटता ? ५९ विभाव परिणाम क्षीण न करनेसे दु खका वेदन ८२१ ८२२ ५१ जैनशासनकी विचारणा ८२२ ५२ जैनपद्धतिके विचारणीय मूलोत्तर प्रश्न ८२३ ५३ न्यायविषयक प्रश्न ८२३ ५४ आत्मदशा और लोकोपकार प्रवृत्तिसवघी ८२३ ५५ आत्म परिणामकी विशेष स्थिरताके लिये ८२१ ८२१ ८२१ ८२१ ८२२ अगुरुलघुता ६५ आत्मध्यानके लिये ज्ञान- तारतम्यतादि ६६ जगतका त्रिकालवर्तित्व ६७ वस्तुका अस्तित्व, दो प्रकारका पदार्थ ' ८२३ ८२४ ८२४ - ८२४ ८२४ ६० चिंतनानुसार आत्माका प्रतिभासन, ' विचारशक्ति और विपयार्तता, चेतनकी अनुत्पत्ति, नित्यत्व और द्रव्यत्व ६१ वीतरागके सम्पूर्ण प्रतीतियोग्य वचन, वीततागताके प्रमाणमें श्रद्धेयत्व, जिनकी शिक्षा अविकल ६२ जैनदर्शन आदिका मथन ६३ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक ८२४ 7 ८२४ ८२५ ८२५ सस्थान आदिके रहस्य सम्वन्धी प्रश्न ६४ सिद्ध आत्माकी लोकालोक-प्रकाशकता, ' ८२६ ८२६ ८२६
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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