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________________ ५६० श्रीमद राजचन्द्र कर्मभाव अज्ञान छे, मोक्षभाव निजवास। अंधकार अज्ञान सम, नाशे ज्ञानप्रकाश ॥९८॥ जो कर्मभाव है वह जीवका अज्ञान है और जो मोक्षभाव है वह जीवकी अपने स्वरूपमे स्थिति होना है । अज्ञानका स्वभाव अधकार जैसा है । इसलिये जैसे प्रकाश होते ही बहुतसे कालका अधकार होनेपर भी वह नष्ट हो जाता है, वैसे ज्ञानका प्रकाश होते ही अज्ञान भी नष्ट हो जाता है ||९८॥ जे जे कारण बंधनां, -तेह बंधनो पंथ । ते कारण छेदक दशा, मोक्षपंथ भवअंत ॥१९॥ जो जो कर्मबंधके कारण हैं, वे वे कर्मबधके मार्ग है, और उन कारणोका छेदन करनेवाली जो दशा है वह मोक्षका मार्ग है, भवका अत है ॥९५|| राग, द्वेष, अज्ञान ए, मुख्य कर्मनी ग्रंथ । थाय निवृत्ति जेहथी, तेज मोक्षनो पंथ ॥१०॥ राग, द्वेष और अज्ञान इनका एकत्व कर्मकी मुख्य गाँठ है, अर्थात् इनके बिना कमंका बध नहीं होता; जिससे उनकी निवृत्ति हो, वही मोक्षका मार्ग है ॥१०॥ आत्मा सत् चैतन्यमय, सर्वाभास रहित । जेथी केवळ पामिये, मोक्षपंथ ते रीत ॥१०१॥ 'सत्' अर्थात् 'अविनाशी', और 'चैतन्यमय' अर्थात् 'सर्वभावको प्रकाशित करनेरूप स्वभावमय', 'अन्य सर्व विभाव और देहादि संयोगके आभाससे रहित ऐसा', 'केवल' अर्थात् 'शुद्ध आत्मा' प्राप्त करें इस प्रकार प्रवृत्ति की जाये वह मोक्षमार्ग है ॥१०१॥ कर्म अनंत प्रकारनां, तेमां मुख्ये आठ। तेमां मुख्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ ॥१०२॥ कर्म अनत प्रकारके है, परन्तु उनके ज्ञानावरण आदि मुख्य आठ भेद होते हैं। उनमे भी मुख्य मोहनीय कर्म है । उस मोहनीय कर्मका नाश जिस प्रकार किया जाये, उसका पाठ कहता हूँ॥१०२॥ कर्म मोहनीय भेद बे, दर्शन चारित्र नाम । हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥१०॥ उस मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-एक 'दर्शनमोहनीय' अर्थात् 'परमार्थमे अपरमार्थबुद्धि और अपरमार्थमे परमार्थबुद्धिरूप', दूसरा 'चारित्रमोहनीय', 'तथारूप परमार्थको परमार्थ जानकर आत्मस्वभावमे जो स्थिरता हो, उस स्थिरताके रोधक पूर्वसस्काररूप कषाय और नोकषाय', यह चारित्रमोहनीय है। आत्मबोध दर्शनमोहनीयका और वीतरागता चारित्रमोहनीयका नाश करते है । इस तरह वे उसके अचूक उपाय हैं, क्योकि मिथ्याबोध दर्शनमोहनीय है, उसका प्रतिपक्ष सत्यात्मबोध है । और चारित्रमोहनीय रागादिक परिणामरूप है, उसका प्रतिपक्ष वीतरागभाव है । अर्थात् जिस तरह प्रकाश होनेसे अधकारका नाश होता है, वह उसका अचूक उपाय है, उसी तरह बोध और वीतरागता दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप अंधकारको दूर करनेमे प्रकाशस्वरूप हैं, इसलिये वे उसके अचूक उपाय हैं ।।१०३।। . कर्मबंध क्रोधादिथी, हणे क्षमादिक तेह। प्रत्यक्ष अनुभव सर्वने, एमा शो संदेह ? ॥१०४॥ क्रोधादि भावसे कर्मबर होता है, और क्षमादि भावसे उसका नाश होता है, अर्थात् क्षमा रखनेसे क्रोध रोका जा सकता है, सरलतासे माया रोकी जा सकती है, सतोषसे लोभ रोका जा सकता है, इसी तरह रति, अरति आदिके प्रतिपक्षसे वे वे दोष रोके जा सकते है, यही कर्मबधका निरोध है, और यही
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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