SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 875
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४२. श्रीमद् राजचन्द्र ... वृद्ध, युवान, बालक-ये सव संसारमें डूबे हैं, कालके मुखमें हैं, ऐसा भय रखना। यह भय रखकर संसारमें उदासीनतापूर्वक रहना।। ... सौ उपवास करे, परन्तु जब तक भीतरसे सचमुच दोष दूर न हों तब तक फल नहीं मिलता। .. , श्रावक किसे कहना ? जिसे. सन्तोष आया हो, जिसके कषाय मंद हो गये हों, भीतरसे गुण प्रगट हुए हों, सच्चा संग मिला हो; उसे श्रावक कहना। ऐसे जीवको बोध लगे तो सारी वृत्ति बदल जाती है, दशा बदल जाती है। सच्चा संग: मिलना यह.पुण्यका योग है। . जीव अविचारसे भूला है। उसे कोई जरा कुछ कहे तो तुरत बुरा लग जाता है। परन्तु विचार नहीं करता कि 'मुझे क्या ? वह कहेगा तो उसे कर्मबन्ध होगा। क्या तुझे अपनी गति बिगाड़नी है ?' क्रोध करके सामने बोलता है तो तू स्वयं ही भूल करता है। जो क्रोध करता है वही बुरा है। इस बारेमें संन्यासी और चांडालका दृष्टांत है।' . .ससुर-बहूके दृष्टांतसे सामायिक समताको कहा जाता है। जीव अहंकारसे बाह्य क्रिया करता है; अहंकारसे माया खर्च करता है। ये दुर्गतिके कारण है । सत्संगके बिना, यह दोष कम नहीं होता। , ..... जीवको अपने आपको चतुर कहलाना बहुत भाता है। बिना बुलाये चतुराई कर बड़ाई लेता है । जिस जीवको विचार नहीं, उसके छूटनेका मार्ग नहीं। यदि जोवः विचारं करेः और सन्मार्गपर चले तो छूटनेका मार्ग मिलता है ... ....... .. ... . . . . . . . बाहुबलजीके दृष्टांतसे, अहंकारसे और मानसे कैवल्य प्रगट नहीं होता । वह बड़ा दोष है । अज्ञान में बड़े-छोटेकी कल्पना है। ..... ... ... ... ... ....." ... . ....... .१३. . . . . “आणंद, भादों वदी १४, सोम पंद्रह भेदोंसे सिद्ध होनेका वर्णन किया है उसका. कारण यह है कि जिसके राग; द्वेष और अज्ञान दूर हो गये हैं, उसका चाहे जिस वेषसे, चाहे जिस स्थानसे और चाहे जिस लिंगसे कल्याण होता है। सच्चा मार्ग एक ही है; इसलिये आग्रह नहीं रखना। मैं ढूंढिया हूँ', 'मैं तपा हूँ', ऐसी कल्पना नहीं रखना । दया, सत्य आदि सदाचरण मुक्तिका रास्ता है; इसलिये सदाचरणका सेवन करें। ... . .. लोच करना किसलिये कहा है ? वह शरीरकी ममताकी परीक्षा है इसलिये । (सिरपर बाल होना) यह मोह बढ़नेका कारण है। नहानेका मन होता है, दर्पण लेनेका मन होता है; उसमें मुँह देखनेका मन होता है, और इसके अतिरिक्त उनके साधनोंके लिये उपाधि करनी पड़ती है। इस कारणसे ज्ञानियोंने लोच करनेका कहा है। ... :.., ..... :.:...:. : ..यात्रा करनेका हेतु एक तो यह है कि गृहवासकी उपाधिसे निवृत्ति ली जाये, सौ दो सौ रुपयोंको मूर्छाः कम की जाये; परदेशमें देशाटन करते हुए कोई सत्पुरुष खोजनेसे मिल जाये तो कल्याण हो जाये। इन कारणोंसे यात्रा करना बताया है.!::...::: " ... ... ... .:. जो सत्पुरुष दूसरे जीवोंको उपदेश देकर कल्याण बताते हैं, उन सत्पुरुषोंको तो अनंत लाभ प्राप्त हुआ है। सत्पुरुष परजीवकी निष्काम करुणाके सागर हैं। वाणीके. उदयके अनुसार उनकी वाणी निकलती है । वे किसी जीवको ऐसा नहीं कहते कि तू दीक्षा ले । तीर्थंकरने पूर्वकालमें कर्म वाँधा है उसका वेदन करनेके लिये दूसरे. जीवोंका कल्याण करते हैं; बाकी तो उदयानुसार दया रहती है। वह दया १. क्रोध चांडाल है। एक संन्यासी स्नान करनेके लिये जा रहा था । रास्तेमें सामनेसे चांडाल आ रहा था। संन्यासीने उसे एक और होनेको कहा। परंतु उसने सुना नहीं। इससे संन्यासी क्रोघमें आ गया। चांडाल उसके गले लग गया और बोला कि, 'मेरा भाग आपमें है ।' २. ससुर कहां गये हैं ? भंगीवस्तीमें । ३. देखें पृष्ठ ७१ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy