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________________ ५७० श्रीमद् राजचन्द्र हो, उसका भरण-पोषण मात्र मिलता हो तो उसमे सतोष करके मुमुक्षुजीव आत्महितका ही विचार करता है, तथा पुरुषार्थ करता है। देह और देहसम्बन्धी कुटुम्बके माहात्म्यादिके लिये परिग्रह आदिकी परिणामपूर्वक स्मृति भी नहीं होने देता, क्योकि उस परिग्रह आदिकी प्राप्ति आदि कार्य ऐसे हैं कि वे प्राय. आत्महितके अवसरको ही प्राप्त नही होने देते। ७२७ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १, शनि, १९५३ ॐ सर्वज्ञाय नमः ___ अल्प आयु और अनियत प्रवृत्ति, असीम बलवान असत्सग, पूर्वकी प्राय अनाराधकता, बलवीर्यकी हीनता ऐसे कारणोसे रहित कोई ही जीव होगा, ऐसे इस कालमे, पूर्वकालमे कभी भी न जाना हुआ, प्रतीत न किया हुआ, आराधित न किया हुआ और स्वभावसिद्ध न हुआ हुआ ऐसा "मार्ग" प्राप्त करना दुष्कर हो इसमे आश्चर्य नही है । तथापि जिसने उसे प्राप्त करनेक सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य रखा ही नही वह इस कालमे भी अवश्य उस मार्गको प्राप्त करता है । मुमुक्षुजीव लौकिक कारणोमे अधिक हर्ष-विषाद नहीं करता । ७२८ . ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी ६, गुरु, १९५३ श्री माणेकचदकी देहके छूट जानेके समाचार जानें । सभी देहधारी जीव मरणके समीप शरणरहित है । मात्र उस देहके यथार्थ स्वरूपको पहलेसे जानकर, उसके ममत्वका छेदन कर निजस्थिरताको अथवा ज्ञानीके मार्गको यथार्थ प्रतीतिको प्राप्त हुए हैं वे ही जीव उस मरणकालमे शरणसहित होकर प्राय फिरसे देह धारण नहीं करते, अथवा मरणकालमे देहके ममत्वभावकी अल्पता होनेसे भी निर्भय रहते हैं। देह छूटनेका काल अनियत होनेसे विचारवान पुरुष अप्रमादभावसे पहलेसे ही उसके ममत्वको निवृत्त करनेके अविरुद्ध उपायका साधन करते हैं, और यही आपको, हमे और सवको ध्यान रखना योग्य है । प्रीतिबधनसे खेद होना योग्य है, तथापि इसमे दूसरा कोई उपाय न होनेसे, उस खेदको वैराग्यस्वरूपमे परिणमन करना ही विचारवानका कर्तव्य है। ७२९ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १०, सोम, १९५३ सर्वज्ञाय नमः __ 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण, 'पचीकरण', 'दासबोध' तथा 'विचारसागर' ये ग्रन्थ आपको विचार करने योग्य हैं। इनमेसे किसी ग्रन्थको आपने पहले पढा हो तो भी पूनः पढने योग्य है और विचार करने योग्य है । ये ग्रथ जैनपद्धतिके नही हैं, यह जानकर उन ग्रन्थोका विचार करते हुए क्षोभ प्राप्त करना योग्य नही है। लोकदृष्टिमे जो जो वाते या वस्तुएँ-जैसे शोभायमान गृहादि आरम्भ, अलकारादि परिग्रह, लोकदृष्टिको विचक्षणता, लोकमान्य धर्मकी श्रद्धा-बडप्पनवाली मानी जाती है उन सब बातो और वस्तुओंका ग्रहण करना प्रत्यक्ष जहरका ही ग्रहण करना है यो यथार्थ समझे बिना आप जिस वृत्तिका लक्ष्य करना चाहते हैं वह नही होता। पहले इन बातो और वस्तुओंके प्रति जहरदृष्टि आना कठिन देखकर कायर न होते हुए पुरुषार्थ करना योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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