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________________ ३० वो वर्ष ५७१ ७३० - ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९५३ सर्वज्ञाय नमः 'आत्मसिद्धि' की टीकाके पन्ने मिले है। यदि सफलताका मार्ग समझमे आ जाये तो इस मनुष्यदेहका एक समय भी सर्वोत्कृष्ट चिंतामणि है, इसमे सशय नही है। ७३१ ववाणिया, मार्गशीर्ष सुदी १२, १९५३ सर्वज्ञाय नमः वृत्तिका लक्ष्य तथारूप सर्वसगपरित्यागके प्रति रहनेपर भी जिस मुमुक्षुको प्रारब्धविशेषसे उस योगका अनुदय रहा करता है, और कुटु व आदिके प्रसग तथा आजीविका आदिके कारण प्रवृत्ति रहती है, जो यथान्याय करनी पड़ती है, परन्तु उसे त्यागके उदयको प्रतिबधक जानकर खिन्नताके साथ करता है, उस मुमुक्षुको, पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मानुसार आजीविकादि प्राप्त होगी, ऐसा विचारकर मात्र निमित्तरूप प्रयत्न करना योग्य है, परन्तु भयाकुल होकर चिंता या न्यायत्याग करना योग्य नहीं है, क्योकि वह तो मात्र व्यामोह है, इसे शात करना योग्य है। प्राप्ति शुभाशुभ प्रारब्धानुसार हे । प्रयत्न व्यावहारिक निमित्त है, इसलिये करना योग्य है, परन्तु चिंता तो मात्र आत्मगुणरोधक है। ७३२ ववाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ श्री लल्लुजी आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो। आरम्भ तथा परिग्रहकी प्रवृत्ति आत्महितको बहुत प्रकारसे रोचक है, अथवा सत्समागमके योगमे एक विशेष अतरायका कारण समझकर ज्ञानीपुरुषोने उसके त्यागरूप बाह्यसयमका उपदेश दिया है, जो प्रायः आपको प्राप्त है। फिर आप यथार्थ भावसयमको अभिलाषासे प्रवृत्ति करते है, इसलिये अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ समझकर सत्शास्त्र, अप्रतिबधता, चित्तको एकाग्रता और सत्पुरुषोके वचनोको अनुप्रेक्षा द्वारा उसे सफल करना योग्य है। ७३३ ववाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ वैराग्य और उपशमकी वृद्धिके लिये 'भावनाबोध', 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण, 'पचीकरण' इत्यादि ग्रन्थ विचार करने योग्य है। जीवमे प्रमाद विशेष है, इसलिये आत्मार्थके कार्यमे जीवको नियमित होकर भी उस प्रभादको दूर करना चाहिये, अवश्य दूर करना चाहिये । ७३४ वाणिया, मार्गशीर्ष वदी ११, बुध, १९५३ श्री सभाग्य आदिके प्रति लिखे गये पत्रोमेसे जो परमार्थ सम्बन्धी पत्र हो उनको अभी हो सके तो एक अलग प्रति लिखियेगा। सोराष्ट्रमे अभी कब तक स्थिति होगी, यह लिखना अशक्य है। यहाँ अभी थोडे दिन स्थिति होगी ऐसा सम्भव है। ७३५ ववाणिया, पौष सुदी १०, मगल, १९५३ विषमभावके निमित्त प्रबलतासे प्राप्त होनेपर भी जो ज्ञानीपुरुष अविषम उपयोगमे रहे है रहते है, ओर भविष्यकालमे रहेगे उन सबको वारवार नमस्कार ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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