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________________ 6 ७ शूरवीर कौन ? ८ महत्ताका मूल क्या ? ९ सदा जागृत कौन ? १० इस ससारमे नरक जैसा ? १७ वर्षसे पहले दुःख क्या १६ अधा कौन ? १७ बहरा कौन ? १८. गूँगा कोन ? r 1 ? ११ अस्थिर वस्तुं क्या १२ इस जगतमे अति गहन क्या ? “१३ चन्द्रमांकी किरणोके समान श्वेत कीर्तिके १३ सुमति और सज्जन । धारक कौन ? - · '१४ जिसे चोर भी न ले सके वह खज़ाना कौनसा ? १४ १५ जीवका सदा अनर्थ करनेवाला कौन ? ? Y १९ शल्यकी भाँति सदा दुखदायी क्या - २० अविश्वास करने योग्य कौन ? २१. सदा ध्यान रखने योग्य क्या ?, २२ सदा पूजनीय कौन ? ७ जो स्त्रीके कटाक्षसे बीधा न जाये । ८ किसीसे प्रार्थना ( याचना ) नही करना | ९. विवेकी । १० परतत्रता ( परवश रहना ) । ११ यौवन, लक्ष्मी और आयु ।” १२ स्त्रीचरित्र और उससे अधिक पुरुषचरित्र । १७ विद्या, सत्य और शीलव्रत । १५ आत्तं और रौद्र ध्यान । १६ कामी तथा रागी । १७ जो हितकारी वचन न सुने । १८ जो अवसर आने पर प्रिय वचन न बोल सके । - १९. गुप्त किया हुआ काम । २० युवती और असज्जन (दुर्जन) मनुष्य | २१ ससारकी असारता । २२ वीतराग देव, सुसाधु और सुधर्मं । १० द्वादशानुप्रेक्षा आत्माके लिये परमहितकारी द्वादशानु प्रेक्षा अर्थात् वैराग्यादि - भाव-भावित बारह चिन्तनाओ के स्वरूपका चिन्तन करता हूँ । १ अनित्य, २ अशरण, ३ ससार, ४ एकत्व, ५. अन्यत्व, ६ अशुचि, ७ आस्रव, ८. सवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ - बोधिदुर्लभ और १२ धर्म । इन बारह चिन्तनाओके नाम प्रथम कहे हैं । भगवान तीर्थकर भी इनके स्वभावका चिन्तन करके संसार, देह एव भोगसे विरक्त हुए है | ये चिन्तनाएँ वैराग्यकी माता हैं । समस्त जीवोका हित करनेवाली है । अनेक- दु.खोसे व्याप्त ससारी जीवोंके लिये ये चिन्तनाएँ अति उत्तम शरण हैं । दुःखरूप अग्निसे सतप्त जीवोके लिये शीतल पद्मवनके मध्यमे निवासके समान हैं । परमार्थ मार्गको दिखानेवाली हैं । तत्त्वका निर्णय करानेवाली है । सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाली हैं । अशुभ ध्यानका नाश करनेवाली हैं। इन द्वादश चिन्तनाओके समान इस जीवका हित करनेवाला दूसरा कोई नही है । ये द्वादशागका रहस्य हैं । इसलिये इन बारह अनुप्रेक्षाओमेसे अब अनित्य अनुप्रेक्षाका भावसहित चिन्तन करते हैं । अनित्य अनुप्रेक्षा देव, मनुष्य और तिर्यंच, यह सब देखते ही देखते पानीकी बूँद और ओसके पुजको भाँति विनष्ट हो जाते हैं । देखते ही देखते विलीयमान होकर चले जाते हैं। और यह सब ऋद्धि, सपदा और परिवार स्वप्न-समान हैं । जिस तरह स्वप्नमे देखी हुई वस्तु पुन दिखायी नही देती, उसी तरह ये विनाशको रत्नकरड श्रापकाचारमेंसे प्रथम तीन अनुप्रेक्षाओका यह अनुवाद है, जो अपूर्ण हूँ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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