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________________ ४२० श्रीमद् राजचन्द्र क्योकि जीवको इतना अवकाश नही है। मोहनीयकर्मकी इस प्रकारसे स्थिति है । और आयुकर्मकी स्थिति श्री जिनेन्द्रने ऐसी कही है कि एक जीव एक हमे रहते हुए उस देहकी जितनी आयु है उसके तीन भागमेसे दो भाग व्यतीत होनेपर जीव आगामी भवकी आयु बाँधता है उससे पहले नही बॉधता, और एक भवमे आगामी कालके दो भवोकी आयु नही बॉधता, ऐसी स्थिति है। अर्थात् जीवको अज्ञानभावसे कर्मवध चला आता है, तथापि उन उन कर्माकी स्थिति चाहे जितनी विडवनारूप होनेपर भी, अनतदु ख और भवका हेतु होनेपर भी जिसमे जीव उससे निवृत्त हो इतना अमुक प्रकार निकाल देनेपर सम्पूर्ण अवकाश है। यह बात जिनेद्रने बहुत सूक्ष्मरूपसे कही है, वह विचार करने योग्य है | जिसमे जीवको मोक्षका अवकाश कहकर कर्मवध कहा है। आपको यह बात सक्षेपमे लिखी है । उसका पुन पुन विचार करनेसे कुछ समाधान होगा, और क्रमसे अथवा समागमसे उसका सम्पूर्ण समाधान हो जायेगा। जो सत्सग हे वह कामको जलानेका वलवान उपाय है । सब ज्ञानीपुरुषोने कामके जीतनेको अत्यत दुष्कर कहा है, यह एकदम सिद्ध है, और ज्यो ज्यो ज्ञानीके वचनका अवगाहन होता है, त्यो त्यो कुछ कुछ करके पीछे हटनेसे अनुक्रमसे जीवका वीर्य बलवान होकर जीवसे कामकी सामर्थ्यका नाश होता है । जीवने ज्ञानीपुरुपके वचन सुनकर कामका स्वरूप ही नही जाना, और यदि जाना होता तो उसमे निपट नीरसता हो गयी होती, यही विनती। आ० स्व० प्रणाम। ५१२ मोहमयी, आपाढ सुदी १५, मगल, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, शुभेच्छाप्राप्त, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति, यथायोग्यपूर्वक विनती कि,-एक पत्र प्राप्त हुआ है। "भगवानने ऐसा कहा है कि चौदह राजलोकमे काजलके कुप्पेको तरह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भरे हुए है, कि जो जीव जलानेसे जलते नही, छेदनेसे छिदते नही, मारनेसे मरते नहीं, ऐसे कहे हैं। उन जीवोंके औदारिक शरीर नही होता, क्या इसलिये उनका अग्नि आदिसे व्याघात नही होता ? अथवा औदारिक शरीर होनेपर भी उनका अग्नि आदिसे व्याघात नही होता हो? यदि औदारिक शरीर हो तो वह शरीर अग्नि आदिसे व्याघातको क्यो प्राप्त न हो ?" इस प्रकारका प्रश्न उस पत्रमे लिखा है, उसे पढा है । विचारके लिये यहाँ उसका सक्षेपमे समाधान लिखा है कि एक देहको त्यागकर दूसरी देह धारण करते समय कोई जीव जब रास्तेमे होता है तब अथवा अपर्याप्तरूपसे उसे मात्र तैजस और कार्मण ये दो शरीर होते हैं, बाकी सब स्थितिमे अर्थात् सकर्म स्थितिमे सब जीवोको तीन शरीरोकी सभावना श्री जिनेन्द्रने बतायी है : कार्मण, तैजस और औदारिक या वैक्रिय इन दोनोमेसे कोई एक । केवल रास्तेमे गमन करते हुए जीवको कार्मण, तैजस ये दो शरीर होते है, अथवा जब तक जीवकी अपर्याप्त स्थिति है, तव तक उसका कार्मण और तैजस शरीरसे निर्वाह हो सकता है, परन्तु पर्याप्त स्थितिमे उसको तीसरे शरीरका नियमसे सभव है। पर्याप्त स्थितिका लक्षण यह है कि आहार आदिके ग्रहण करनेरूप यथोचित सामर्थ्यका होना और यह आहार आदिका जो कुछ भी ग्रहण हे वह तीसरे शरीरका प्रारभ है, अर्थात् वही तीसरा शरीर शुरू हुआ ऐसा समझना चाहिये। भगवानने जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय कहे हैं वे अग्नि आदिसे व्याघातको प्राप्त नहीं होते। वे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय होनेसे उनके तीन शरीर है, परन्तु उनका जो तीसरा औदारिक शरीर है वह इतने सूक्ष्म अवगाहनका है कि उसे शस्त्र आदिका स्पर्श नही हो सकता। अग्नि आदिका जो महत्त्व हे और एकेन्द्रिय शरीरका जो सूक्ष्मत्व है, वे इस प्रकारके है कि जिन्हे एक दूसरेका सम्बन्ध
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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