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________________ ..उपदेश छाया.. ७३७ .... दो घड़ी पुरुषार्थ करे तो केवलज्ञान हो जाता है, ऐसा कहा है। चाहे जैसा. पुरुषार्थ करे तो भी रेल्वे आदि दो घड़ीमें तैयार नहीं होतो; तो फिर केवलज्ञान कितना सुलभ है इसका विचार करें। . जो बातें जीवको मंद कर डालें, प्रमादो कर डाले वैसी बातें न सुनें। इसीसे जीव अनादिसे भटका हैं। भवस्थिति, काल आदिके अवलंबन न लें, ये सब बहाने हैं। ... : जीवको संसारी आलंबन और विडम्बनाएँ छोड़नी नहीं है, और मिथ्या,आलंबन लेकर कहता है कि कर्मके दल हैं, इसलिये मुझसे कुछ हो नहीं सकता। ऐसे आलंबन लेकर पुरुषार्थ नहीं करता । यदि पुरुषार्थ करे और भवस्थिति या काल बाधा डाले तब उसका उपाय करेंगे । परन्तु प्रथम पुरुषार्थ करना चाहिये । . । सच्चे पुरुषको आज्ञाका आराधन करना परमार्थरूप ही है। उसमें लाभ ही होता है । यह व्यापार लाभका हो है। जिस मनुष्यने लाखों रुपयोंकी ओर मुड़कर पीछे नहीं देखा, वह अब हजारके व्यापारमें बहाना निकालता है. उसका कारण यह है कि अंतरसे आत्मार्थके लिये कुछ करनेकी इच्छा नहीं है । जो आत्मार्थी हो गया वह मुड़कर पीछे नहीं देखता, वह तो पुरुषार्थ करके सामने आ जाता है। शास्त्रमें कहा है कि आवरण, स्वभाव, भवस्थिति कव पके ? तो कहते हैं कि जब पुरुषार्थ करे तब । ....... पाँच कारण मिले तब मुक्त होता है। वे पाँचों कारण पुरुषार्थमें निहित हैं। अनंत चौथे कालचक्र मिलें. परन्तु यदि स्वयं पुरुषार्थ करे तो ही मुक्ति प्राप्त होती है। जीवने अनंत कालसे पुरुषार्थ नहीं किया है। सभी मिथ्या आलंबन लेकर मार्गमें विघ्न डाले हैं। कल्याणवृत्ति उदित हो तब भवस्थितिको परिपक्व हुई समझें । शौर्य हो तो वर्षका कार्य दो घड़ीमें किया जा सकता है। ...... प्रश्न-व्यवहारमें चौथे गुणस्थानमें कौन कौनसे व्यवहार लागू होते हैं ? शुद्ध व्यवहार या और कोई ? : : उत्तर-दूसरे सभी व्यवहार लागू होते हैं। उदयसे शुभाशुभ व्यवहार होता है; और परिणतिसे शुद्ध. व्यवहार होता है।. . . परमार्थसे शुद्ध कर्ता कहा जाता है। प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी क्षय किये हैं, इसलिये शुद्ध व्यवहारका कर्ता है । समकितीको अशुद्ध व्यवहार दूर करना है । समकिती परमार्थसे शुद्ध कर्ता है । ... नयके प्रकार अनेक हैं, परन्तु जिस प्रकारसे आत्मा ऊँचा उठे, पुरुषार्थ वर्धमान हो, उसी प्रकारका विचार करें। प्रत्येक कार्य करते हुए अपनी भूलपर ध्यान रखें। एक सम्यक् उपयोग हो तो स्वयंको अनुभव हो जाता है कि कैसी अनुभवदशा प्रगट होती है ! . .सत्संग हो तो सभी गुण अनायास ही प्राप्त होते हैं। दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहमर्यादा आदिका आचरण अहंकार रहित करें। लोगोंको दिखानेके लिये कुछ भी न करें। मनुष्यका अवतार मिला है, और सदाचारका सेवन नहीं करेगा तो पछताना पड़ेगा। मनुष्यके अवतारमें सत्पुरुपके वचन सुनने और विचार करनेका योग मिला है। - सत्य बोलना, यह कुछ मुश्किल नहीं है, विलकुल सहज है। जो व्यापार आदि सत्यसे होते हों, उन्हें हो करें। यदि छः महीने तक इस तरह आचरण किया जाये तो फिर सत्य बोलना सहज हो जाता है। सत्य बोलनेसे कदाचित् प्रथम थोड़े समय तक थोड़ा नुकसान भी हो जाये; परन्तु फिर अनंत गुणका स्वामी आत्मा जो सारा लूटा जा रहा है वह लुटता हुआ बंद हो जाता है । सत्य बोलनेसे धीरे धीरे सहज हो जाता है और यह होनेके वाद व्रत ले; अभ्यास रखे; क्योंकि उत्कृष्ट परिणामवाले.आत्मा विरल हो होते हैं। जोव यदि लौकिक भयसे भयभीत हुआ, तो उससे कुछ भी नहीं होता। लोग चाहे जो कहे उसकी परवा न करते हुए जिससे आत्महित हो ऐसे सदाचरणका सेवन करें।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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