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________________ २६ वो वर्ष ३७७ बबई, चैत्र वदी ३०, रवि, १९४९ ससारीरूपसे रहते हुए किस स्थितिसे वर्तन करें तो अच्छा, ऐसा कदाचित् भासित हो, तो भी वह वर्तन प्रारब्धाधीन है। किसी प्रकारके कुछ राग, द्वेष या अज्ञानके कारणसे जो न होता हो, उसका कारण उदय मालूम होता है । और आपके लिखे हुए पत्रके सम्बन्धमे भी वैसा जानकर अन्य विचार या शोक करना ठीक नही है। जलमे स्वाभाविक शीतलता है, परन्तु सूर्यादिके तापके योगसे वह उष्णतावाला दिखायी देता है, उस तापका योग दूर होनेपर वही जल शीतल लगता है । बीचमे वह जल शीतलतासे रहित लगता है, वह तापके योगसे है। इसी तरह यह प्रवृत्तियोग हमे है, परन्तु अभी तो उस प्रवृत्तिका वेदन करनेके सिवाय हमारा अन्य उपाय नही है। नमस्कार प्राप्त हो। ___ ववई, चैत्र वदी ३०, रवि, १९४९ जो मु० यहाँ चातुर्मासके लिये आना चाहते है, यदि उनका आत्मा दुखित न होता हो तो उनसे कहना कि उन्हे इस क्षेत्रमे आना निवृत्तिरूप नही है। कदाचित् यहाँ सत्सगकी इच्छासे आनेका सोचा हो तो वह योग मिलना बहुत विकट है, क्योकि हमारा वहाँ जाना-आना सम्भव नही है। प्रवत्तिके बलवान कारणोकी उन्हे प्राप्ति हो, ऐसी यहां स्थिति है, ऐसा जानकर यदि उन्हे कोई दूसरा विचार करना सुगम हो तो करना योग्य है । इस प्रकारसे लिख सके तो लिखियेगा। ___ अभी आपकी वहाँ कैसो दशा रहती है ? वहाँ विशेषरूपसे सत्सगका समागम योग करना योग्य है । आपके प्रश्नके उत्तरके सिवाय विशेष लिखना अभी सूझता नही है। आत्मस्थित । ___ बंबई, वैशाख वदी ६, रवि, १९४९ प्रत्येक प्रदेशसे जीवके उपयोगके लिये आकर्षक इस ससारमे एक समय मात्र भी अवकाश लेनेकी ज्ञानीपुरुषोने हाँ नही कही, इस विषयमे केवल नकार कहा है। उस आकर्षणसे यदि उपयोग अवकाशको प्राप्त हो तो उसी समय वह आत्मरूप हो जाता है। उसी समय आत्मामे वह उपयोग अनन्य हो जाता है। इत्यादि अनुभववार्ता जीवको सत्सगके दृढ निश्चयके विना प्राप्त होना अत्यन्त विकट है। उस सत्सगको जिसने निश्चयरूपसे जाना है, ऐसे पुरुषको उस सत्सगका योग रहना इम दुपमकालमे अत्यत विकट है। जिस चिताके उपद्रवसे आप घबराते हैं, वह चिंता-उपद्रव कोई शत्रु नही है। कोई ज्ञानवार्ता जरूर लिखिये। प्रेमभक्तिसे नमस्कार। ववई, वैशाख वदी ८, मगल, १९४९ जहाँ उपाय नही वहाँ खेद करना योग्य नहीं है। ईश्वरेच्छाके अनुसार जो हो उसमे समता रखना योग्य है, और उसके उपायका कोई विचार सूझे उसे करते रहना, इतना मात्र हमारा उपाय है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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