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________________ श्रीमद् राजचन्द्र लोमडीके ठाकुरसम्बन्धी प्रश्नोत्तर और विवरण जाना है । अभी 'ईश्वरेच्छा' वैसी नही है | प्रश्नोत्तरके लिये खीमचदभाई मिले होते तो हम योग्य बात करते । तथापि वह योग नही हुआ, और वह अभो न हो तो ठीक, ऐसा हमारे मनमे भी रहता था । आपके आजीविका साधनसम्वन्धी बात ध्यानमे है, तथापि हम तो मात्र सकल्पधारी है । ईश्वरेच्छा होगी वैसा होगा । और अभी तो वैसा होने देनेकी हमारी इच्छा है । ३५६ शुभवृत्ति मणिलाल, वोटाद । ४०१ ॐ सत् परमप्रेमसे नमस्कार प्राप्त हो । वंबई, भादो सुदी १, मंगल, १९४८ आपका वैराग्यादिके विचारवाला एक सविस्तर पत्र तीनेक दिन पहले मिला है । जीवमे वेराग्य उत्पन्न होना इसे एक महान गुण मानते हैं, और उसके साथ शम, दम, विवेकादि साधन अनुक्रमसे उत्पन्न होनेरूप योग प्राप्त हो तो जीवको कल्याणकी प्राप्ति सुलभ होती है, ऐसा समझते हैं । (ऊपरकी पक्तिमै 'योग' शब्द लिखा है, उसका अर्थ प्रसग अथवा सत्सग समझना चाहिये ।) अनत कालसे जीवका मसारमे परिभ्रमण हो रहा है, और इस परिभ्रमणमे इसने अनत जप, तप, वैराग्य आदि साधन किये प्रतीत होते हैं, तथापि जिससे यथार्थ कल्याण सिद्ध होता है, ऐसा एक भी साधन हो सका हो ऐसा प्रतीत नही होता। ऐसे तप, जप या वैराग्य अथवा दूसरे साधन मात्र ससाररूप हुए है, वैसा किस कारणसे हुआ ? यह बात अवश्य वारवार विचारणीय है । (यहाँ किसी भी प्रकारसे जप, तप, वैराग्य आदि साधन निष्फल हैं, ऐसा कहनेका हेतु नही है, परंतु निष्फल हुए हैं, उसका हेतु क्या होगा ? उसका विचार करनेके लिये लिखा गया है। कल्याणकी प्राप्ति जिसे होती है, ऐसे जीवमे वैराग्यादि साधन तो अवश्य होते हैं ।) श्री सुभाग्यभाईके कहनेसे, यह पत्र जिसकी ओरसे लिखा गया है, उसके लिये आपने जो कुछ श्रवण किया है, वह उनका कहना यथातथ्य है या नही ? यह भी निर्धार करने जैसी बात है । हमारे सत्सगमे निरन्तर रहने सम्वन्धी आपकी जो इच्छा है, उसके विपयमे अभी कुछ लिख सकना अशक्य है । आपके जाननेमे आया होगा कि यहाँ हमारा जो रहना होता है वह उपाधिपूर्वक होता है, और वह उपाधि इस प्रकारसे हे कि वैसे प्रसगमे श्री तीर्थंकर जैसे पुरुपके विपयमे निर्धार करना हो तो भी विकट हो जाये, कारण कि अनादिकालसे जीवको मात्र वाह्यप्रवृत्ति अथवा वाह्यनिवृत्तिकी पहचान है, और उसके आधारसे ही वह' सत्पुरुप, असत्पुरुपकी कल्पना करता आया है। कदाचित् किसो सत्सगके योगसे 'सत्पुरुष ये है, ऐसा जीवके जाननेमे आता है, तो भी फिर उनका बाह्यप्रवृत्तिरूप योग देखकर जेसा चाहिये वैसा निश्चय नही रहता, अथवा तो निरन्तर वढता हुआ भक्तिभाव नही रहता, और कभी तो सन्देहको प्राप्त होकर जीव वैसे सत्पुरुपके योगका त्याग कर जिसकी वाह्यनिवृत्ति दिखायी देती है, ऐसे असत्पुरुपका दृढाग्रहसे सेवन करता है। इसलिये जिस कालमे सत्पुरुपको निवृत्तिप्रसग रहता हो वैसे प्रसंगमे उनके समीप रहना इसे जीवके लिये विशेष हितकर समझते हैं । इस बातका इस समय इससे विशेष लिखा जाना अशक्य है। यदि किसी प्रसगसे हमारा समागम हो तो उस समय आप इस विषयमे पूछियेगा और कुछ विशेष कहने योग्य प्रसग होगा तो कह सकना सम्भव है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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