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२५ वॉ वर्ष
३५५ बहुत प्रतिकूल समझते हो तो यह जीवका अनादि अभ्यास है, ऐसा जानकर सहनशीलता रखना अधिक योग्य है |
जिसके गुणगान करनेसे जीव भवमुक्त होता है, उसके गुणगान से प्रतिकूल होकर दोषभावसे प्रवृत्ति करना, यह जीवके लिये महा दु खदायक है, ऐसा मानते है, और जव वैसे प्रकारमे वे आ जाते है तब समझते हैं कि जीवको किसी वैसे पूर्वकर्मका निबंधन होगा | हमे तो तत्सम्बन्धी अद्वेष परिणाम ही है, और उनके प्रति करुणा आती है । आप भी इस गुणका अनुकरण करें और जिस तरह वे गुणगान करने योग्य पुरुषका अवर्णवाद बोलनेका प्रसग प्राप्त न करें, वैसा योग्य मार्ग ग्रहण करें, यह अनुरोध है ।
हम स्वयं उपाधि प्रसगमे रहे थे और रह रहे हैं, इससे स्पष्ट जानते हैं कि उस प्रसगमे सर्वथा आत्मभावसे प्रवृत्ति करना दुष्कर है। इसलिये निरुपाधिवाले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका सेवन करना आवश्यक है, ऐसा जानते हुए भी अभी तो यही कहते हैं कि उस उपाधिका वहन करते हुए निरुपाधिका विसर्जन न किया जाये, ऐसा करते रहे ।
हम जैसे सत्सगको निरन्तर भजते है, तो वह आपके लिये अभजनीय क्यों होगा ? यह जानते हैं, परतु अभी तो पूर्वकर्मको भजते है, इसलिये आपको दूसरा मार्ग कैसे बतायें ? यह आप विचारें ।
एक क्षणभर भी इस ससर्गमे रहना अच्छा नही लगता, ऐसा होनेपर भी बहुत समय से इसका सेवन करते आये हैं, सेवन कर रहे है, और अभी अमुक काल तक सेवन करना ठान रखना पडा है, और आपको यही सूचना करना योग्य माना है । यथासम्भव विनयादि साधनसम्पन्न होकर सत्सग, सत्शास्त्राभ्यास और आत्मविचारमे प्रवृत्ति करना, ऐसा करना ही श्रेयस्कर है ।
आप तथा दूसरे भाइयोको अभी सत्सग प्रसग कैसा रहता है ? सो लिखियेगा । समय मात्र भी प्रमाद करनेकी तीर्थंकरदेवकी आज्ञा नही है ।
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वह पुरुष नमन करने योग्य है, कीर्तन करने योग्य है,
परमप्रेमसे गुणगान करने योग्य है,
वारंवार विशिष्ट आत्मपरिणामसे ध्यान करने योग्य है,
बबई, श्रावण वदी, १९४८
कि
जिस पुरुषको द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे किसी भी प्रकारको प्रतिबद्धता नहीं रहती ।
आपके बहुतसे पत्र मिले है, उपाधियोग इस प्रकारसे रहता है कि उसकी विद्यमानतामे पत्र लिखने योग्य अवकाश नही रहता, अथवा उस उपाधिको उदयरूप समझकर मुख्यरूपसे आराधते हुए आप जेसे पुरुषको भी जानवूझकर पत्र नही लिखा, इसके लिये क्षमा करने योग्य है ।
जबसे इस उपाधियोगका आराधन करते हैं, तबसे चित्तमे जैसी मुक्तता रहती है वैसी मुक्तता अनुपाधिप्रसगमे भी नही रहती थी, ऐसी निश्चलदशा मगसिर सुदी ६ से एक धारासे चली आ रही है । आपके समागमको बहुत इच्छा रहती है, उस इच्छाका सकल्प दीवालीके बाद 'ईश्वर' पूर्ण करेगा, ऐसा मालूम होता है ।
बबई तो उपाधिस्थान है, उसमे आप इत्यादिका समागम हो तो भी उपाधिके आडे आनेसे यथायोग्य समाधि प्राप्त नही होती, जिससे किसी ऐसे स्थलका विचार करते हैं कि जहाँ निवृत्तियोग रहे ।