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________________ २५ वॉ वर्ष ३५७ दीक्षा लेनेकी वारवार इच्छा होती हो तो भी अभी उस वृत्तिको शान्त करना, और कल्याण क्या तथा वह कैसे हो इसकी वारंवार विचारणा और गवेषणा करना। इस प्रकारमे अनन्तकालसे भूल होती आयी है, इसलिये अत्यत विचारसे कदम उठाना योग्य है । अभी यही विनती। रायचदके निष्काम यथायोग्य । ४०२ , बबई, भादो सुदी ७, सोम, १९४८ उदय देखकर उदास न होवें। स्वस्ति श्री सायला शुभस्थानमे स्थित, मुमुक्षुजनके परम हितैषी, सर्व जीवोके प्रति परमार्थ करुणादृष्टि हे जिनकी, ऐसे निष्काम, भक्तिमान श्री सुभाग्यके प्रति, श्री 'मोहमयी' स्थानसे' के निष्काम विनयपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । ससारका सेवन करनेके आरभकाल (?) से लेकर आज दिन पर्यत आपके प्रति जो कुछ अविनय, अभक्ति, और अपराधादि दोष उपयोगपूर्वक अथवा अनुपयोगसे हुए हो, उन सबकी अत्यन्त नम्रतासे क्षमा चाहता हूं। ___ श्री तीर्थकरने जिसे मुख्य धर्मपर्व गिनने योग्य माना है, ऐसी इस वर्षकी सवत्सरी व्यतीत हुई। किसी भी जीवके प्रति किसी भी प्रकारसे किसो भी कालमे अत्यन्त अल्प मात्र दोष करना योग्य नहीं है, ऐसी बातका जिसमे परमोत्कृष्टरूपसे निर्धार हुआ है, ऐसे इस चित्तको नमस्कार करते है, और वही वाक्य मात्र स्मरणयोग्य ऐसे आपको लिखा है कि जिस वाक्यको आप नि.शकतासे जानते है। 'रविवारको आपको पत्र लिखूगा', ऐसा लिखा था तथापि वैसा नही हो सका, यह क्षमा करने योग्य है। आपने व्यवहार प्रसगके विवरण सम्बन्धी पत्र लिखा था, उस विवरणको चित्तमे उतारने और विचारनेकी इच्छा थी, तथापि वह चित्तके आत्माकार होनेसे निष्फल हो गयो है, और अब कुछ लिखा जा सके ऐसा प्रतीत नही होता, जिसके लिये अत्यंत नम्रतासे क्षमा चाहकर यह पत्र परिसमाप्त करता हूँ। सहजस्वरूप। ४०३ बंबई, भादो सुदो १०, गुरु, १९४८ जिस जिस प्रकारसे आत्मा आत्मभावको प्राप्त हो वह प्रकार धर्मका है। आत्मा जिस प्रकारसे अन्यभावको प्राप्त हो वह प्रकार अन्यरूप है, धर्मरूप नहीं है। आपने वचनके श्रवणके पश्चात् अभी जो निष्ठा अगीकृत की हे वह निष्ठा श्रेययोग्य है । दृढ मुमुक्षुको सत्सगसे वह निष्ठादि अनुक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर आत्मस्थितिरूप होती है। जीवको धर्म अपनी कल्पनासे अथवा कल्पनाप्राप्त अन्य पुरुपसे श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य या आराधने योग्य नहीं है । मात्र आत्मस्थिति है जिनकी ऐसे सत्पुरुपसे ही आत्मा अथवा आत्मधर्म श्रवण करने योग्य है, यावत् आराधने योग्य है । ४०४ बबई, भादो सुदी १०, गुरु, १९४८ स्वस्ति श्री स्थभतीर्य शुभस्थानमे स्थित, शुभवृत्तिसम्पन्न मुमुक्षुभाई कृष्णदासादिके प्रति, समारकालसे इम क्षण तक आपके प्रति किसी भी प्रकारका अविनय, अभक्ति, असत्कार अथवा वैसा दूसरे अन्य प्रकार सम्बन्धी कोई भी अपराध मन, वचन, कायाके परिणामसे हुए हो, उन सबके लिये अत्यन्त नम्रतासे, उन सर्व अपराधोके अत्यन्त लय परिणामरूप आत्मस्थितिपूर्वक मैं सब प्रकारसे क्षमा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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