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________________ श्रीमद् राजचन्द्र नमिराज-(हेतु-कारण-प्रे०) कामभोग शल्य सरीखे हैं, कामभोग विष सरीखे है, कामभोग सर्पके तुल्य है, जिनकी इच्छा करनेसे जीव नरकादिक अधोगतिमे जाता है, तथा क्रोध एव मानके कारण दुर्गति होती है, मायाके कारण सद्गतिका विनाश होता है, लोभसे इस लोक व परलोकका भय होता है । इसलिये हे विप्र | इसका तू मुझे वोध न दे । मेरा हृदय कभी भी विचलित होनेवाला नही है, इस मिथ्या मोहिनीमे अभिरुचि रखनेवाला नही है । जानबूझ कर जहर कौन पिये ? जानबूझ कर दीपक लेकर कुएँमे कौन गिरे ? जानबूझकर विभ्रममे कौन पड़े? मैं अपने अमृत जैसे वैराग्यके मधुर रसको अप्रिय करके इस विषको प्रिय करनेके लिये मिथिलामे आनेवाला नही हूँ। महर्षि नमिराजको सुदृढ़ता देखकर शकेंद्रको परमानंद हुआ, फिर ब्राह्मणके रूपको छोडकर इन्द्रका रूप धारण किया । वदन करनेके बाद मधुर वाणीसे वह राजर्षीश्वरकी स्तुति करने लगा-'हे महायशस्विन् । बडा आश्चर्य है कि तूने क्रोधको जीता। आश्चर्य, तूने अहकारका पराजय किया । आश्चर्य, तूने मायाको दूर किया। आश्चर्य, तूने लोभको वशमे किया। आश्चर्य, तेरी सरलता। आश्चर्य, तेरा निर्ममत्व । आश्चर्य, तेरी प्रधान क्षमा । आश्चर्य, तेरी निर्लोभता। हे पूज्य । तू इस भवमे उत्तम है, और परभवमे उत्तम होगा। तू कर्मरहित होकर प्रधान सिद्धगतिमे जायेगा।" इस प्रकार स्तुति करते-करते प्रदक्षिणा देते-देते श्रद्धाभक्तिसे उस ऋषिके पादावुजको वंदन किया। तदनतर वह सुदर मुकुटवाला शकेंद्र आकाशमार्गसे चला गया। प्रमाणशिक्षा-विप्ररूपमे नमिराजक वैराग्यको परखनेमे इंद्रने क्या न्यूनता की है ? कुछ भी नही की । ससारकी जो-जो लोलुपताएँ मनुष्यको विचलित करनेवाली है, उन-उन लोलुपताओ सबधी महागौरव से प्रश्न करनेमे उस पुरदरने निर्मल भावसे स्तुतिपात्र चातुर्य चलाया है । फिर भी निरीक्षण तो यह करना है कि नमिराज सर्वथा कचनमय रहे है। शुद्ध एव अखड वैराग्यके वेगमे अपने बहनेको उन्होने उत्तरमे प्रदर्शित किया है- "हे विप्र! तू जिन-जिन वस्तुओको मेरी कहलवाता है वे वे वस्तुएँ मेरी नही है । मैं एक ही हूँ, अकेला जानेवाला हूँ, और मात्र प्रशसनीय एकत्वको हो चाहता हूँ।" ऐसे रहस्यमे नमिराज अपने उत्तर और वैराग्यको दृढीभूत करते गये है। ऐसी परम प्रमाणशिक्षासे भरा हुआ उन महर्षिका चरित्र है। दोनो महात्माओका पारस्परिक सवाद शुद्ध एकत्वको सिद्ध करनेके लिये तथा अन्य वस्तुओका त्याग करनेके उपदेशके लिये यहाँ दर्शित किया है । इसे भी विशेष दृढीभूत करनेके लिये नमिराजने एकत्व कैसे प्राप्त किया, इस विषयमे नमिराजके एकत्व-सबधको किंचित् मात्र प्रस्तुत करते हैं। वे विदेह देश जैसे महान राज्यके अधिपति थे। अनेक यौवनवती मनोहारिणी स्त्रियोके समुदायसे घिरे हुए थे। दर्शनमोहनीयका उदय न होनेपर भी वे ससारलुब्धरूप दिखायी देते थे। किसी समय उनके शरीरमे दाहज्वर नामके रोगकी उत्पत्ति हुई । सारा शरीर मानो प्रज्वलित हो जाता हो ऐसी जलन व्याप्त हो गयी। रोम-रोममे सहस्र बिच्छुओको दशवेदनाके समान दुख उत्पन्न हो गया। वैद्य-विद्यामे प्रवीण -पुरुषोके औषधोपचारका अनेक प्रकारसे सेवन किया, परन्तु वह सब वृथा गया। लेशमात्र भी वह व्याधि कम न होकर अधिक होतो गयी। औषधमात्र दाहज्वरके हितैषी होते गये। कोई औषध ऐसा न मिला कि जिसे दाहज्वरसे किंचित् भी द्वेष हो ! निपुण वैद्य हताश हो गये, और राजेश्वर भी उस महाव्याधिसे तग आ गये । उसे दूर करनेवाले पुरुषकी खोज चारो तरफ चलती थी। एक महाकुशल वैद्य मिला, उसने मलयगिरि चदनका विलेपन करनेका सूचन किया । मनोरमा रानियाँ चन्दन घिसनेमे लग गयी। चदन घिसनेसे प्रत्येक रानीके हाथोमे पहने हुए ककणोका समुदाय खलभलाहट करने लग गया । मिथिले के अगमे एक दाहज्वरकी असह्य वेदना तो थी ही और दूसरी उन ककणोके कोलाहलसे उत्पन्न खलभलाहट सहन नही कर सके, इसलिये उन्होने रानियोको आज्ञा की, "तुम चदन न घिसो. भलाहट करती हो ? मुझसे यह खलभलाहट सहन नहीं हो सकती । एक तो मैं महाव्याधि" सासत हूँ, और खिल
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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