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________________ ४५९ जो रागद्वेषादि परिणाम अज्ञानके बिना सम्भवित नही है, उन रागद्वेषादि परिणामों के होते हुए भी, सर्वथा जीवन्मुक्तता मानकर जीवन्मुक्तदशाकी जीव आसातना करता है, ऐसे प्रवृत्ति करता है । सर्वथा रागद्वेषपरिणामको परिक्षीणता ही कर्तव्य है । 4 ' २८ वाँ वर्ष जहाँ अत्यन्त ज्ञान हो वहाँ अत्यन्त त्यागका सम्भव है । अत्यन्त त्याग प्रगट हुए बिना अत्यन्त ज्ञान नही होता, ऐसा श्री तीर्थंकरने स्वीकार किया है । आत्मपरिणामसे जितना अन्य पदार्थका तादात्म्य - अध्यास निवृत्त होना, उसे श्री जिनेद्र त्याग कहते हैं । वह तादात्म्य अध्यास-निवृत्तिरूप त्याग होने के लिये यह बाह्य प्रसगका त्याग भी उपकारी है, कार्यकारी है । बाह्य प्रसगके त्यागके लिये अतरत्याग कहा नही है, ऐसा है, तो भी इस जीवको अतर्त्यागके लिये बाह्य प्रसगकी निवृत्तिको कुछ भी उपकारी मानना योग्य है । नित्य छूटने का विचार करते है और जैसे वह कार्य तुरत पूरा हो वैसे जाप जपते हैं । यद्यपि ऐसा लगता है कि वह विचार और जाप अभी तक तथारूप नही है, शिथिल है, अत अत्यन्त विचार और उस जापका उग्रतासे आराधन करनेका अल्पकालमे योग करना योग्य है, ऐसा रहा करता है । ' प्रसगसे कुछ परस्परके सम्बन्ध जैसे वचन इस पत्रमे लिखे है, ' वे विचारमे स्फुरित हो आने से स्वविचार बल बढने के लिये और आपके पढने-विचारनेके लिये लिखे हैं । जीव, प्रदेश, पर्याय तथा संख्यात, असख्यात, अनत आदिके विषयमे तथा रेसको व्यापकताके विषय क्रमपूर्वक समझना योग्य होगा। " आपका यहाँ आनेका विचार है, तथा श्री डुंगरका आना संम्भव हैं, यह लिखा सो जाना है । सत्सगयोगको इच्छा रहा करती हैं । """ ti 1 1 ५७० 1 बबई, फागुन वदी ५, शनि, १९५१ सुज्ञ भाई श्री मोहनलालके प्रति, श्री डरबन । । पत्र एक मिला है । ज्यो ज्यो उपाधिका त्याग होता है, त्यो त्यो समाधिसुख प्रगट होता है । ज्यो यो उपाधिका ग्रहण होता है त्यों त्यो समाधिसुखकी हानि होती है । विचार करें तो यह वात प्रत्यक्ष अनुभवमे आती हैं । यदि इस संसारके पदार्थोंका कुछ भी विचार किया जाये, तो उसके प्रति वैराग्य आये बिना नही रहेगा, क्योकि मात्र अविचारके कारण उसमे मोहबुद्धि रहती है । 'आत्मा है', 'आत्मा नित्य है', 'आत्मा कर्मका कर्ता है', 'आत्मा कर्मका भोक्ता है', 'उससे वह निवृत्त हो सकता है', और 'निवृत्त हो सकनेके साधन है', ये छ. कारण जिसे विचारपूर्वक सिद्ध हो उसे विवेकज्ञान अथवा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति मानना, ऐसा श्री जिनेन्द्रने निरूपण किया है, उस निरूपणका मुमुक्षुrtant विशेष करके अभ्यास करना योग्य है । पूर्वके किसी विशेष अभ्यासवलसे इन छ कारणोका विचार उत्पन्न होता है, अथवा सत्संगके आश्रयसे उस विचारके उत्पन्न होनेका योग बनता है। अनित्य पदार्थ प्रति मोहवुद्धि होनेके कारण आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व और अव्यावाध समाधिसुख भानमे नही आता । उसकी मोहबुद्धिमे जीवको अनादिसे ऐसी एकाग्रता चली आती है, कि उसका विवेक करते करते जीवको अकुलाकर पीछे लौटना पड़ता है, ओर उम मोहग्रथिको छेदनेका समय आने से पहले वह विवेक छोड़ देनेका योग पूर्व कालमे बहुत बार हुआ है, क्योकि जिसका अनादिकालसे अभ्यास १ महात्मा गाधीजी ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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