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________________ १७ वा वर्ष प्रमाणशिक्षा-स्वप्नमे जैसे उस भिखारीने सुखसमुदायको देखा, भोगा और आनन्द माना; वैसे पामर प्राणी संसारके स्वप्नवत् सुखसमुदायको महानन्दरूप मान बैठे है। जैसे वह सुखसमुदाय जागृतिमे उस भिखारीको मिथ्या प्रतीत हुआ, वैसे तत्त्वज्ञातरूपी जागृतिसे ससारके सुख मिथ्या प्रतीत होते हैं। स्वप्नके भोग न भोगे जानेपर भी जैसे उस भिखारीको शोककी प्राप्ति हुई, वैसे पामर भव्य जीव ससारमे सुख मान बैठते हैं, और भोगे हुएके तुल्य मानते है, परन्तु उस भिखारीकी भाँति परिणाममे खेद, पश्चात्ताप और अधोगतिको प्राप्त होते है। जैसे स्वप्नको एक भी वस्तुका सत्यत्व नहीं है, वैसे ससारकी एक भी वस्तुका सत्यत्व नही है। दोनो चपल और शोकमय है। ऐसा विचार करके बुद्धिमान पुरुष आत्मश्रेयको खोजते हैं। इति श्री 'भावनाबोध' ग्रन्थके प्रथम दर्शनका प्रथम चित्र 'अनित्यभावना' इस विषयपर सदृष्टान्त वैराग्योपदेशार्थ समाप्त हुआ। द्वितीय चित्र अशरणभावना (उपजाति) सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी। अनाथ एकात सनाथ थाशे, - एना विना कोई न बाह्य सहाशे ॥ विशेषार्थ-सर्वज्ञ जिनेश्वरदेवके द्वारा नि स्पहतासे उपदिष्ट धर्मको उत्तम शरणरूप जानकर, मन, वचन और कायाके प्रभावसे हे चेतन | उसका तू आराधन कर, आराधन कर। तू केवल अनाथरूप है सो सनाथ होगा। इसके बिना भवाटवीभ्रमणमे तेरी बाँह पकडनेवाला कोई नही है । जो आत्मा ससारके मायिक सुखको' या अवदर्शनको शरणरूप मानते हैं, वे अधोगतिको प्राप्त करते हैं, तथा सदैव अनाथ रहते है, ऐसा बोध करनेवाले भगवान अनाथी मुनिका चरित्र प्रारम्भ करते है, इससे अशरणभावना सुदृढ होगी। अनाथी मुनि दृष्टान्त-अनेक प्रकारको लीलाओसे युक्त मगध देशका श्रेणिक राजा अश्वक्रीडाके लिये मडिकुक्ष नामके वनमे निकल पडा । वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी। नाना प्रकारके तरुकुञ्ज वहाँ नजर आ रहे थे, नाना प्रकारकी कोमल वल्लिकाएँ घटाटोप छायी हुई थी, नाना प्रकारके पक्षी आनन्दसे उनका सेवन कर रहे थे, नाना प्रकारके पक्षियोके मधुर गान वहाँ सुनायो दे रहे थे, नाना प्रकारके फूलोसे वह वन छाया हुआ था, नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, सक्षेपमे सृष्टिसौदर्यका प्रदर्शनरूप होकर वह वन नंदनवनकी तुल्यता धारण कर रहा था। वहाँ एक तरुके नीचे महान समाधिमान पर सुकुमार एव सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा । उनका रूप देखकर वह राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ। उस अतुल्य उपमारहित रूपसे विस्मित होकर मनमे उनकी प्रशसा करने लगा-'अहो । इस मनिका कैसा अद्भुत वर्ण है | अहो। इसका कैसा मनोहर रूप है । अहो । इस आर्यको कैसो अद्भुत सौम्यता है। अहो । यह कैसी विस्मयकारक क्षमाके धारक है | अहो । इसके अगसे वैराग्यकी कैसी उत्तम स्फरणा है। अहो । इसकी कैसी निर्लोभता मालम होती है | अहो | यह संयति कसा निर्भय अप्रभुत्व-नम्रता धारण किये हुए है | अहो । इसकी भोगको नि सगता कितनो सुदृढ है ।" यो चिंतन करते-करते मदित होते-होते. स्तुति करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वदन करके, न अति समीप और न
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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