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________________ ३८ श्रामद् राजचन्द्र विशेषार्थ-लक्ष्मी विजलीके समान है। जैसे बिजलीका चमकारा हाकर विलीन हो जाता है, वैसे लक्ष्मी आकर चली जाती है । अधिकार पतंगके रंगके समान है। पतगका रंग जैसे चार दिनकी चॉदनी है, वैसे अधिकार मात्र थोडा समय रहकर हाथसे चला जाना है। आयुष्य पानीकी हिलोरके समान है। जैसे पानोकी हिलोर आयो कि गयी वैसे जन्म पाया और एक देहमे रहा या न रहा, इतनेमे दूसरी देहमे जाना पडता है। कामभोग आकाशमे उत्पन्न होनेवाले इद्रधनुषके सदृश है। जैसे इन्द्रधनुप वर्षाकालमे उत्पन्न होकर क्षणभरमे विलीन हो जाता है वैसे यौवनमे कामविकार फलीभूत होकर जरावस्थामे चले जाते है । सक्षेपमे हे जीव ! इन सभी वस्तुओका सम्बन्ध क्षणभरका है, इनमे प्रेमवधनकी सॉकलसे बँधकर क्या प्रसन्न होना ? तात्पर्य कि ये सब चपल एव विनाशी हैं, तू अखड एव अविनाशी है, इसलिये अपने जैसी नित्य वस्तुको प्राप्त कर । भिखारीका खेद दृष्टांत-इस अनित्य और स्वप्नवत् सुखके विषयमे एक दृष्टात कहते है एक पामर भिखारी जगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी। इसलिये वह विचारा लडखड़ाता हुआ एक नगरमे एक सामान्य मनुष्यके घर पहुंचा। वहां जाकर उसने अनेक प्रकारकी आजिजी की । उसकी गिड़गिडाहटसे करुणार्द्र होकर उस गृहपतिको स्त्रीने घरमेसे जीमनेसे बचा हुआ मिष्टान्न लाकर उसे दिया। ऐसा भोजन मिलनेसे भिखारी बहुत आनन्दित होता हुआ नगरके बाहर आया । आकर एक वृक्षके नीचे बैठा । वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना बहुत पुराना पानीका घड़ा रख दिया, एक ओर अपनी फटो पुरानी मलिन गुदडो रखो और फिर एक ओर वह स्वयं उस भोजनको लेकर बैठा । खुशी-खुशीसे उसने कभी न देखे हुए भोजनको खाकर पूरा किया। भोजनको स्वधाम पहुँचानेके बाद सिरहान एक पत्थर रखकर वह सो गया । भोजनके मदसे जरासी देरमे उसकी आँखे मिच गयी । वह निद्रावश हुआ कि इतनेमे उसे एक स्वप्न आया। मानो वह स्वयं महा राजऋद्धिको प्राप्त हुआ है, इसलिये उसने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, सारे देशमे उसकी विजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आज्ञाका पालन करनेके लिये अनुचर खडे हैं, आसपास छड़ीदार ‘खमा । खमा !" पुकार रहे है, एक उत्तम महालयमे, सुन्दर पलंगपर उसने शयन किया है, देवांगना जैसी स्त्रियाँ उसकी पॉव-चप्पी कर रही है, एक ओरसे __ मनुष्य पखेसे सुगन्धी पवन कर रहे है, इस प्रकार उसने अपूर्व सुखकी प्राप्तिवाला स्वप्न देखा। स्वप्ना-, वस्थामे उसके रोमाच उल्लसित हो गये। वह मानो स्वयं सचमुच वैसा सुख भोग रहा है ऐसा वह मानने लगा। इतनेमे सूर्यदेव बादलोसे ढंक गया, विजलो कौंधने लगो, मेघ महाराज चढ आये, सर्वत्र अंधेरा छा गया; मूसलधार वर्षा होगी ऐसा दृश्य हो गया, और घनगर्जनाके साथ बिजलीका एक प्रबल कडाका हुआ । कडाकेकी प्रबल आवाजसे भयभीत हो वह पामर भिखारी शीघ्र जाग उठा। जागकर देखता है तो न है वह देश कि न है वह नगरी, न है वह महालय कि न है वह पलग, न हैं वे चामरछत्रधारी कि न हैं वे छड़ीदार, न है वह स्त्रीवृन्द कि न है वे वस्त्रालंकार, न हे वे पखे कि न है वह पवन, न है वे अनुचर कि न है वह आज्ञा, न हे वह सुखविलास कि न है वह मदोन्मत्तता । देखता है तो जिस जगह पानीका पुराना घड़ा पड़ा था उसी जगह वह पडा है, जिस जगह फटी-पुरानी गुदड़ी पड़ी थी उसी जगह वह फटी-पुरानी गुदड़ी पड़ी है। महाशय तो जैसे थे वैसेके वैसे दिखायी दिये । स्वय जैसे मलिन और अनेक जाली-झरोखेवाले वस्त्र पहन रखे थे वेसेके वैसे वही वस्त्र शरीरपर विराजते है । न तिलभर घटा कि न रत्तीभर बढा। यह सब देखकर वह अति शोकको प्राप्त हुआ। 'जिस सुखाडबरसे मैने आनन्द माना, उस सुखमेसे तो यहाँ कुछ भी नही है । अरे रे । मैंने स्वप्नके भोग तो भोगे नही और मुझे मिथ्या खेद प्राप्त हुआ।' इस प्रकार वह विचारा भिखारी ग्लानिमे आ पड़ा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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