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श्रीमद् राजचन्द्र
३७१. नग्न नही नहाऊँ । ३७२ महीन कपड़े नही पहनूं । ३७३. अधिक अलंकार नही पहनूं । ३७४. अमर्यादासे नही चलूँ । ३७५. तेज आवाजसे नही बोलं ।
३७६. पतिपर दबाव नही रखूं । (स्त्री) ३७७. तुच्छ संभोग नही भोगना । (गृ०, उ० ) ३७८. खेदमे भोग नही भोगना ।
३७९ सायंकालमे भोग नही भोगना । ३८०. सायकालमे भोजन नही करना । ३८१. अरुणोदयमे भोग नही भोगना । ३८२ ऊँघमेसे उठकर भोग नही भोगना । ३८३. ऊँघमेसे उठकर भोजन नही करना ।
३८४. शौचक्रियासे पहले कोई क्रिया नही करना ।
३८५ क्रियाकी कोई आवश्यकता नही है । (परमहस )
३८६ ध्यानके बिना एकात मे नही रहूँ । (मु०, गृ०, ब्र०, उ०, प० )
३८७. लघुशकामे तुच्छ नही होॐ ।
३८८. दीर्घशकामे समय नही लगाऊँ ।
३८९. प्रत्येक ऋतुके शरीरधर्म की रक्षा करू । (गृ०)
३९०. मात्र आत्माकी ही धर्मकरनीकी रक्षा करूँ । (मु०) ३९१ अयोग्य मार, बधन नही करू ।
३९२. आत्मस्वतत्रता नही खोऊ । (मु०, गृ०, ब्र०) ३९३ बधनमे पड़ने से पहले विचार करू । (सा० ) ३९४ पूर्वकृत भोगको याद नही करू । ( मु०, गृ०) ३९५. अयोग्य विद्या नही सार्धं । (मु०, गृ०, ब्र०, उ० ) ३९६. बोध भी नही दूँ ।
३९७ अनुपयोगी वस्तु नही लूँ ।
३९८. नही नहाऊँ । (मु० ) ३९९. दातुन नही करू" ।
४०० संसार-सुख नही चाहूँ ।
४०१. नीति बिना संसारका भोग नही करू" । (गृ०)
४०२ प्रकट रूपमे कुटिलतासे भोगका वर्णन नही करूँ |- (गृ०)
४०३. विरहग्रंथ नही रचूं | ( मु०, गृ०, ब्र०)
४०४ अयोग्य उपमा नही दूँ । (मु०, गृ०, ब्र०, उ० )
४०५. स्वार्थके लिये क्रोध नही करूं । (मु०, गृ० ) ४०६. वादयश प्राप्त नही करूँ । ( उ० )
४०७. अपवादसे खेद नही करू ।
४०८. धर्मद्रव्यका उपयोग नही कर सकूं। (गृ०)
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