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________________ २५ वो वर्ष ३५१ कि वे शब्द अन्य आशयसे कहे गये हैं, अथवा किसी पिछले कालके विसर्जन-दोपसे लिखे गये है तो जिस जीवने इस विषयमे आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया हो वह जीव कैसे दोपको प्राप्त होगा यह सखेद करुणासे विचार करने योग्य है। अभी जिन्हे जिनसूत्रोके नामसे जाना जाता है, उनमे 'क्षायिकसमकित नहीं है, ऐसा स्पष्ट लिखा नही है, और परम्परागत तथा दूसरे कितने ही ग्रन्थोमे यह बात चली आती है ऐसा पढा है, और सुना है, और यह वाक्य मिथ्या है या मृषा है, ऐसा हमारा अभिप्राय नहीं है, और वह वाक्य जिस प्रकारसे लिखा है, वह एकान्त अभिप्रायसे ही लिखा है, ऐसा हमे नही लगता। कदाचित् ऐसा माने कि वह वाक्य एकान्त ही है तो भी किसी भी प्रकारसे व्याकुलता करना योग्य नही है। क्योकि यदि इन सभी व्याख्याओको सत्पुरुषके आशयसे नही जाना तो फिर सफल नहीं है। कदाचित् ऐसा माने कि इसके बदले जिनागममे लिखा हो कि चौथे कालको भॉति पांचवें कालमे भी बहुतसे जीव मोक्षमे जानेवाले है, तो इस बातका श्रवण आपके लिये और हमारे लिये कुछ कल्याणकारी नही हो सकता, अथवा मोक्षप्राप्तिका कारण नही हो सकता, क्योकि वह मोक्षप्राप्ति जिस दशामे कही है, उसी दशाकी प्राप्ति ही सिद्ध है, उपयोगी है, कल्याणकर्ता है। श्रवण तो मात्र बात है, उसी प्रकार उससे प्रतिकूल वाक्य भी मात्र बात है। वे दोनो लिखी हो, अथवा एक ही लिखी हो अथवा व्यवस्थाके बिना रखा हो, तो भी वह बध अथवा मोक्षका कारण नही है। मात्र बधदशा बंध है, मोक्षदशा मोक्ष है, क्षायिकदशा क्षायिक है, अन्यदशा अन्य है, श्रवण श्रवण हे, मनन मनन है, परिणाम परिणाम हे, प्राप्ति प्राप्ति है, ऐसा सत्पुरुषोका निश्चय है । बंध मोक्ष नही है, और मोक्ष वध नहीं है, जो जो है वह वह है, जो जिस स्थितिमे है, वह उस स्थितिमे है। वधवुद्धि टली नही है और मोक्ष-जीवनमुक्तता-माननेमे आये तो यह जैसे सफल नही है, वैसे ही अक्षायिकदशासे क्षायिक माननेमे आये, तो वह भी सफल नही है । माननेका फल नही हे परन्तु दशाका फल है। जब यह स्थिति है तो फिर अब हमारा आत्मा अभी किस दशामे है, और वह क्षायिकसमकिती जीवकी दशाका विचार करनेके योग्य है या नहीं, अथवा उससे उतरती या उससे चढती दशाका विचार यह जीव यथार्थ कर सकता है या नही ? इसीका विचार करना जीवके लिये श्रेयस्कर है। परन्तु अनन्तकालसे जीवने वैसा विचार नहीं किया है, उसे वैसा विचार करना योग्य है ऐसा भासित भी नही हुआ, और निष्फलतापूर्वक सिद्धपद तकका उपदेश यह जीव अनन्त वार कर चुका है, वह उपर्युक्त प्रकारका विचार किये बिना कर चुका है, विचारकर यथार्थ विचार कर-नही कर चुका है। जैसे पूर्वकालमे जीवने यथार्थ विचारके बिना वैसा किया है, वैसे ही उस दशा (यथार्थ विचारदशा) के विना वर्तमानमे वैसा करता है। जब तक जीवको अपने बोधके वलका भान नही आयेगा तब तक वह भविष्यमे भी इसी तरह प्रवृत्ति करता रहेगा। किसी भी महा पुण्यके योगसे जीव पीछे हटकर, तथा वैसे मिथ्या-उपदेशके प्रवर्तनसे अपना बोधवल आवरणको प्राप्त हुआ है, ऐसा समझ कर उसके प्रति सावधान होकर निरावरण होनेका विचार करेगा, तव वैसा उपदेश करनेसे, दूसरेको प्रेरणा देनेसे और आग्रहपूर्वक कहनेसे रुकेगा। अधिक क्या कहे ? एक अक्षर बोलते हुए अतिशय-अतिशय प्रेरणा करते हुए भी वाणो मौनको प्राप्त होगी, और उस मौनको प्राप्त होनेसे पहले जीव एक अक्षर सत्य बोल पाये, ऐसा होना अशक्य है, यह बात किसी भी प्रकारसे तोनो कालोमे सदेहपात्र नहीं है। तीर्थकरने भी ऐसा ही कहा है, और वह अभी उनके आगममे भी है, ऐसा ज्ञात है। कदाचित आगममे तथाकथित अर्थ न रहा हो, तो भी ऊपर बताये हुए शब्द आगम ही है, जिनागम ही है। राग, द्वेष और अज्ञान, इन तीनो कारणोसे रहित होकर ये शब्द प्रगट लिखे गये है, इसलिये सेवनीय हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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