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________________ ४७७ २८ वॉ वर्ष परिक्षीण करे, और उस सत्सगके लिये देहत्याग करनेका योग होता हो तो उसे स्वीकार करे; परन्तु उससे किसी पदार्थमे विशेष भक्तिस्नेह होने देना योग्य नही है । तथा प्रमादवश रसगारव आदि दोषोसे उस सत्सगके प्राप्त होनेपर पुरुषार्थधर्म मद रहता है, और सत्सग फलवान नही होता, ऐसा जानकर पुरुषार्थंवीर्यका गोपन करना योग्य नही है । १२ सत्सगकी अर्थात् सत्पुरुषकी पहचान होनेपर भी यदि वह योग निरतर न रहता हो तो सत्सगसे प्राप्त हुए उपदेशका ही प्रत्यक्ष सत्पुरुष के तुल्य समझकर विचार करना तथा आराधन करना कि जिस आराधनसे जीवको अपूर्वं सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । १३ जीवको मुख्यसे मुख्य और अवश्यसे अवश्य यह निश्चय रखना चाहिये कि मुझे जो कुछ करना है वह आत्मा के लिये कल्याणरूप हो, उसे ही करना है, और उसीके लिये इन तीन योगोकी उदयबलसे प्रवृत्ति होती हो तो होने देना, परन्तु अन्तमे उस त्रियोगसे रहित स्थिति करने के लिये उस प्रवृत्तिका संकोच करते करते क्षय हो जाये, यही उपाय कर्तव्य है । वह उपाय मिथ्याग्रहका त्याग, स्वच्छंदताका त्याग, प्रमाद और इन्द्रियविषयका त्याग, यह मुख्य है । उसे सत्संग के योगमे अवश्य आराधन करते ही रहना, और सत्सगकी परोक्षतामे तो अवश्य अवश्य आराधन किये ही जाना, क्योकि सत्सगके प्रसगमे तो यदि जीवकी कुछ न्यूनता हो तो उसके निवारण होनेका साधन सत्संग है, परन्तु सत्सगकी परोक्षतामे तो एक अपना आत्मंबल ही साधन है । यदि वह आत्मबल सत्सगसे प्राप्त हुए बोधका अनुसरण न करे, उसका आचरण न करे, आचरण मे होनेवाले प्रमादको न छोडे, तो किसी दिन भी जीवका कल्याण न हो सङ्क्षेपमे लिखे हुए ज्ञानीके मार्गके आश्रयके उपदेशक इन वाक्योका मुमुक्षुजीवको अपने आत्मामे निरंतर परिणमन करना योग्य हैं, जिन्हे हमने अपने आत्मगुणका विशेष विचार करनेके लिये शब्दोमे लिखा है । ६१० १९५१ बबई, आषाढ सुदी १, रवि, लगभग पंद्रह दिन पहले एक और आज एक ऐसे दो पत्र मिले है। आजके पत्रसे दो प्रश्न जाने है । संक्षेपमे उनका समाधान इस प्रकार है— (१) सत्यका ज्ञान होनेके बाद मिथ्याप्रवृत्ति दूर न हो, ऐसा नही होता । क्योकि जितने अश सत्यका ज्ञान हो उतने अशमे मिथ्याभावप्रवृत्ति दूर हो, ऐसा जिनेंद्रका निश्चय है। कभी पूर्व प्रारब्धसे बाह्य प्रवृत्तिका उदय रहता हो तो भी मिथ्या प्रवृत्तिमे तादात्म्य न हो, यह ज्ञानका लक्षण है और नित्यप्रति मिथ्या प्रवृत्ति परिक्षीण हो, यही सत्य ज्ञानकी प्रतीतिका फल है । मिथ्या प्रवृत्ति कुछ भी दूर न हो, तो सत्यका ज्ञान भी सम्भव नही है । (२) देवलोकमेसे जो मनुष्यलोकमे आये, उसे अधिक लोभ होता है, इत्यादि कहा सामान्यत है, एकात नही है । यही विनती । बम्बई, आपाद सुदी १, रवि, १९५१ अमुक ऋतुमे विपरिणाम भी होता है । आर्द्रा नक्षत्र के बाद जो आम उत्पन्न ६११ जैसे अमुक वनस्पतिकी अमुक ऋतुमे उत्पत्ति होती है, वैसे सामान्यत आमके रम-स्पर्शका विपरिणाम आर्द्रा नक्षत्रमे होता है। होता है उसका विपरिणामकाल आर्द्रा नक्षत्र है, ऐसा नही है । परन्तु सामान्यत चैत्र, वैशाख आदि मासमे उत्पन्न होनेवाले आमकी आर्द्रा नक्षत्रमे विपरिणामिता सम्भव है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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