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________________ १७वों वर्ष १११ सफल नही होता तो सावधानीमे कुछ न्यूनता पहुंचाता है। जो इस न्यूनताको भी न पाकर अडिग रहकर मनको जीतते हैं वे सर्वसिद्धिको प्राप्त करते हैं। मन अकस्मात् किसीसे ही जीता जा सकता है, नहीं तो अभ्यास करके ही जीता जाता है । यह अभ्यास निग्रंथतामे बहुत हो सकता है, फिर भी गृहस्थाश्रममे हम सामान्य परिचय करना चाहे तो उसका मुख्य मार्ग यह है कि यह जो दुरिच्छा करे उसे भूल जायें, वैसा न करें। यह जब शब्द, स्पर्श आदि विलासकी इच्छा करे तब इसे न दें। सक्षेपमे, हम इससे प्रेरित न हो, परन्तु हम इसे प्रेरित करे और वह भी मोक्षमार्गमे । जितेन्द्रियताके विना सर्व प्रकारकी उपाधि खडी ही रहती है । त्यागने पर भी न त्यागने जैसा हो जाता है, लोक-लज्जासे उसे निभाना पड़ता है। इसलिये अभ्यास करके भो मनको जीतकर स्वाधीनतामे लाकर अवश्य आत्महित करना चेहिाये । शिक्षापाठ ६९ · ब्रह्मचर्यकी नौ बाड़ें ज्ञानियोने थोडे शब्दोमे कैसे भेद और कैसा स्वरूप बताया है ? इससे कितनी अधिक आत्मोन्नति होती है ? ब्रह्मचर्य जैसे गभीर विषयका स्वरूप सक्षेपमे अति चमत्कारी ढगसे दिया है। ब्रह्मचर्यरूपी एक सुन्दर वृक्ष और उसकी रक्षा करनेवाली जो नौ विधियाँ हैं उसे बाडका रूप देकर ऐसी सरलता कर दी है कि आचारके पालनमे विशेष स्मृति रह सके। ये नौ बा. जैसी हैं वैसी. यहाँ कह जाता हैं। १. वसति-जो ब्रह्मचारी साधु है वह जहाँ स्त्री, पशु या पण्डग से सयुक्त वसति हो वहाँ न रहे । स्त्री दो प्रकारकी हैं मनुष्यिणी और देवागना। इस प्रत्येकके फिर दो-दो भेद है एक तो मूल और दूसरी स्त्रीको मूर्ति या चित्र । इस प्रकारका जहाँ वास हो वहाँ ब्रह्मचारी साधु न रहे। पशु अर्थात् तिर्यचिणी गाय, भैंस इत्यादि जिस स्थानमे हो उस स्थानमे न रहे, और जहाँ पण्डग अर्थात् नपुसकका वास हो वहाँ भो न रहे। इस प्रकारका वास ब्रह्मचर्यको हानि करता है। उनकी कामचेष्टा, हावभाव इत्यादिक विकार मनको भ्रष्ट करते है। २ कथा-केवल अकेली स्त्रियोको ही या एक ही स्त्रीको ब्रह्मचारी धर्मोपदेश न करे। कथा मोहकी जननी है । स्त्रीके रूपसम्बन्धी ग्रन्थ, कामविलाससम्बन्धी ग्रन्थ ब्रह्मचारी न पढे, या जिससे चित्त चलित हो ऐसी किसी भी प्रकारको शृङ्गारसम्बन्धी कथा ब्रह्मचारी न करे। . ३ आसन-स्त्रियोंके साथ एक आसनपर न बैठे । जहाँ स्त्री बैठी हो वहाँ दो घडी तक ब्रह्मचारी न बैठे । यह स्त्रियोको स्मृतिका कारण है, इससे विकारको उत्पत्ति होती है, ऐसा भगवानने कहा है। ४ इन्द्रियनिरीक्षण-ब्रह्मचारी साधु स्त्रियोंके अगोपाग न देखे, उनके अमुक अंगपर दृष्टि एकाग्र होनेसे विकारको उत्पत्ति होती है। ५ कुड्यांतर-भीत, कनात अथवा टाटका व्यवधान बोचमे हो और जहाँ स्त्री-पुरुष मैथुन करते हो वहाँ ब्रह्मचारी न रहे। क्योकि शब्द चेष्टादिक विकारके कारण हैं । ६. पूर्वकोड़ा-स्वय गृहस्थावासमे चाहे जिस प्रकारके शृगारसे विषयक्रीडा की हो उसकी स्मृति न करे, वैसा करनेसे ब्रह्मचर्यका भग होता है। ___७. प्रणोत-दूध, दही, घृतादि मधुर और चिकने पदार्थोंका बहुधा आहार न करे। इससे वीर्यको वृद्धि और उन्माद होते हैं और उससे कामकी उत्पत्ति होती है। इसलिये ब्रह्मचारी वैमा न करे। ८ अतिमात्राहार-पेट भरकर आहार न करे तथा जिससे अति मात्राकी उत्पत्ति हो ऐसा न करे । इससे भी विकार बढता है।। ___९ विभूषण-स्नान, विलेपन, पुष्प आदिको ब्रह्मचारी ग्रहण न करे। इससे ब्रह्मचर्यको हानि होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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