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________________ २९ वॉ वर्ष ५२५ वर्तमानमे उस ज्ञानका उसीने निषेध किया है, जिससे तत्सम्बंधी प्रयत्न करना भी सफल दिखायी नही देता 1. जैनप्रसगमे हमारा अधिक निवास हुआ है, तो किसी भी प्रकारसे उस मार्गका उद्धार हम जैसों द्वारा विशेषत हो सकता है, क्योकि उसका स्वरूप विशेषतः समझमे आया हो, इत्यादि । वर्तमानमे जैनदर्शन इतना अधिक अव्यवस्थित अथवा विपरीत स्थितिमे देखनेमे आता है, कि उसमेसे मानो जिनेंद्रको × × × × ' गया है, और लोग मार्ग प्ररूपित करते हैं । बाह्य झझट बहुत बढा दी है, और अतर्मार्गका | ज्ञान प्राय विच्छेद जैसा हुआ है । वेदोक्त मार्गमे दो सौ चार सौ बरसमे कोई कोई महान आचार्य हुए दिखायी देते हैं कि जिससे लाखो मनुष्योको वेदोक्त पद्धति सचेत होकर प्राप्त हुई हो । फिर साधारणतः, कोई कोई आचार्यं अथवा उस मार्ग के जाननेवाले सत्पुरुष इसी तरह हुआ करते हैं, और जैनमार्गमे बहुत वर्षो से वैसा हुआ मालूम नही होता । जैनमार्गमे प्रजा भी बहुत थोडी रह गयी है और उसमे सैंकड़ो भेद" है । इतना ही नही, किन्तु 'मूलमार्ग' के सन्मुख होनेकी बात भी उनके कानमे नही पडती, और उपदेशक के ध्यान मे नही है, ऐसी स्थिति है । इसलिये चित्तमे ऐसा आया करता है कि यदि उस मार्गका अधिक प्रचार हो तो वैसे करना, नही तो उसमे रहनेवाली प्रजाको मूललक्ष्यरूपसे प्रेरित करना । यह काम बहुत विकट है । तथा जैनमार्गको स्वयमेव समझना और समझाना कठिन है । उसे समझाते हुए अनेक प्रतिबधक कारण आ खड़े हो, ऐसी स्थिति है । इसलिये वैसी प्रवृत्ति करते हुए डर लगता है । उसके साथ-साथ ऐसा भी रहता है कि यदि यह कार्य इस कालमे हमारेसे कुछ भी बने तो वन सकता है, नही तो अभी तो मूलमार्गके सन्मुख होनेके लिये दूसरेका प्रयत्न काम आये वैसा दिखायी नही देता । प्राय. मूलमार्ग दूसरेके ध्यानमे नही है, तथा उसका हेतु दृष्टातपूर्वक उपदेश करनेमे परमश्रुत आदि गुण अपेक्षित हैं, एवं बहुत अतर गुण अपेक्षित हैं, वे यहाँ हैं, ऐसा दृढ भास होता है । इस तरह यदि मूलमार्गको प्रकाशमे लाना हो तो प्रकाशमे लानेवालेको सर्वसंगपरित्याग करना योग्य है, क्योकि उससे यथार्थ समर्थ उपकार होने का समय आता है। वर्तमान दशाको देखते हुए, सत्तागत कर्मोंपर दृष्टि डालते हुए कुछ समयके बाद उसका उदयमे आना सम्भव है | हमे सहजस्वरूपज्ञान है, जिससे योगसाधनकी इतनी अपेक्षा न होनेसे उसमे प्रवृत्ति नही की, तथा वह सर्वसंगपरित्यागमे अथवा विशुद्ध देशपरित्यागमे साधने योग्य है। इससे लोगोका बहुत उपकार होता है, यद्यपि वास्तविक उपकारका कारण तो आत्मज्ञानके बिना दूसरा कोई नही है । अभी दो वर्ष तक तो वह योगसाधन विशेषतः उदयमे आये वैसा दिखायी नही देता, इसलिये इसके बाद की कल्पना की जाती है, और तीनसे चार वर्ष उस मार्गमे व्यतीत किये जायें तो ३६ वर्षमे सर्वसंगपरित्यागो उपदेशकका समय आये, और लोगोका श्रेय होना हो तो हो । छोटी उमरमे मार्गका उद्धार करनेकी अभिलाषा रहा करती थी, उसके बाद ज्ञानदशा आनेपर क्रमशः वह उपशान्त जैसी हो गयी, परतु कोई कोई लोग परिचयमे आये थे, उन्हे कुछ विशेषता भासित होनेसे किंचित् मूलमार्गपर लक्ष्य आया था, ओर इस तरफ तो सैकडो या हजारो मनुष्य समागममे आये थे जिनमे से लगभग सौ मनुष्य कुछ समझदार और उपदेशकके प्रति आस्थावाले निकलेंगे । इस परसे ऐसा देखनेमे आया कि लोग तरनेके इच्छुक विशेष हैं, परंतु उन्हे वैसा योग मिलता नही है । यदि सचमुच उपदेशक पुरुषका योग बने तो बहुतसे जीव मूलमार्ग प्राप्त कर सकते हैं, और दया आदिका विशेष उद्योत हो सकता है | ऐसा दिखायी देनेसे कुछ चित्तमे आता है कि यह कार्य कोई करे तो बहुत अच्छा, परतु १ यहाँ अक्षर खडित हो गये है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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