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________________ २१ वा वर्ष १७५ __ जा सके उतने होगे। बाकी तो दर्शनकी दशा देखकर करुणा उत्पन्न होने जैसा है। आप स्थिर चित्तसे विचार कर देखेंगे तो यह मेरा कथन आपको सप्रमाण लगेगा। . इन सभी मतोमे कितनोका तो साधारण-सा विवाद है। मुख्य विवाद यह है कि एकका कथन प्रतिमाकी सिद्धिके लिये है, दूसरे उसका सर्वथा खण्डन करते हैं। दूसरे पक्षमे पहले मैं भी गिना गया था। मेरी अभिलाषा वीतरागदेवको आज्ञाके आराधनकी ओर है । ऐसा सत्यताके लिये कह कर बता देता हूँ कि प्रथम पक्ष सत्य है, अर्थात् जिनप्रतिमा और उसका पूजन शास्त्रोक्त, प्रमाणोक्त, अनुभवोक्त और अनुभवमे लेने योग्य है । मुझे उन पदार्थोंका जिस रूपसे बोध हुआ अथवा उस विषय सम्बन्धी मुझे जो अल्प शका थी वह दूर हो गयी, उस वस्तुका किंचित् भी प्रतिपादन होनेसे कोई भी आत्मा तत्सम्बन्धी विचार कर सकेगा, और उस वस्तुको सिद्धि प्रतीत हो तो तत्सम्बन्धी उसके मतभेद दूर हो जायेंगे, यह सुलभदोधिताका कार्य होगा ऐसा समझकर, सक्षेपमे कुछेक विचार प्रतिमासिद्धिके लिये प्रदर्शित करता हूँ। मेरी प्रतिमामे श्रद्धा है, इसलिये आप सब श्रद्धा करें, इसके लिये मेरा कहना नही है, परन्तु यदि उससे वोर भगवानकी आज्ञाका आराधन होता दिखाई दे, तो वैसा करे । परन्तु इतना स्मरण रखें कि - कतिपय आगमप्रमाणोकी सिद्धिके लिये परपरा, अनुभव इत्यादिकी आवश्यकता है। यदि आप कहे तो कुतर्कसे पूरे जैनदर्शनका भी खण्डन कर दिखाऊँ, परन्तु उसमे कल्याण नही है। जहाँ प्रमाणसे और अनुभवसे सत्य वस्तु सिद्ध हो गई हो, वहाँ जिज्ञासु पुरुष अपने चाहे जैसे हठको भी छोड़ देते हैं। 'यदि ये महान विवाद इस कालमे न पड़े होते तो लोगोको धर्मप्राप्ति बहुत सुलभ होतो। , सक्षेपमे मै इस बातको पाँच प्रकारके प्रमाणोसे सिद्ध करता हूँ१ आगमप्रमाण, २ इतिहासप्रमाण, ३ परंपराप्रमाण, ४ अनुभवप्रमाण, ५ प्रमाणप्रमाण। .. १. आगमप्रमाण आगम किसे कहा जाये इसकी पहले व्याख्या होनेकी जरूरत है। जिसका प्रतिपादक मूल पुरुष आप्त हो और जिसमे उसके वचन होते है वह आगम है। गणधरोने वीतरागदेव द्वारा उपदिष्ट अर्थकी योजना करके सक्षेपमे मुख्य वचनोको लिया, वे आगम या सूत्रके नामसे पहचाने जाते है । सिद्धात, शास्त्र ये उसके दूसरे नाम हैं। ___गणधरोने तीर्थंकरदेव द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोकी द्वादशागीरूपसे योजना की, उन बारह अगोके नाम कह देता हूँ-आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग, समवायाग, भगवतो, ज्ञाताधर्मकथाग, उपासकदशाग, अतकृतदशाग, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद । १ जिससे वीतरागकी किसी भी आज्ञाका पालन हो ऐसी प्रवृत्ति करना यह मुख्य मान्यता है। २ मैं पहले प्रतिमाको नही मानता था और अब मानता हूँ, इसमे कोई पक्षपाती कारण नही है, परन्तु मझे उसकी सिद्धि प्रतीत हुई इसलिये मान्य रखता हूँ, और सिद्धि होनेपर भी नहीं माननेसे पहलेकी मान्यताकी भी सिद्धि नही है, और वैसा होनेसे आराधकता नही है। ३ मेरी इस मत या उस मतकी मान्यता नही है, परन्तु रागद्वेषरहित होनेको परमाकाक्षा है, ओर उसके लिये जो जो साधन हो, उन सबको चाहना और करना ऐसी मान्यता है, और इसके लिये महावीरके वचनोपर मुझे पूर्ण विश्वास है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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